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जरा सोचिए
'मन्दिरों में मूल के सिवाय कोई भी वह कृति न रखी जब हमने परम्परित प्रामाणिक निग्रन्थ आचार्यों की जाय जो किन्ही परम्परित आचार्यवर्य की न हो। इसमें मूल कृतियों मात्र को मन्दिरो में रखने की बात कही तो हमारा भाव 'आगमरूप में न रखी जाय' ऐसा रहा है। एक प्रमुख ने हमसे कहा- इससे तो आगम भाषा से अजान जैसा कि हमने अपने लेख के प्रारम्भ मे स्पष्ट भी कर लोगों का संकट बढ़ जायगा। हमने कहा-अपना संकट दिया है-'अमुक आगम है, और अमुक आगम नहीं है, बचाओ या मूल आगम की रक्षा करो। दोनों बातें तभी अमुक को निकालो, अमुक को रखो ऐमी चर्चा चारों ओर हो सकती है जब विद्वन्मुख से मूल का (मौखिक रूप) अर्थ है', आदि । उक्त प्रसंग हम आज भी दुहराते है और चाहते सुना जाय । अर्थ के मौखिक होने से किसी गलत रिकार्ड हैं कि विवाद शान्त करने के लिए सभी प्रकार की घुसपैठ बनने की शंका भी न रहेगी और आगम भी सुरक्षित रोक दी जाय । पूर्वाचार्यों के आदेश नुसार परम्परित रहेगा। प्रारम्भिक समय मे ऐसा ही होता रहा है। निग्रन्थ आचार्यों की रचनाए ही आगम श्रेणी में मानी जांय भापान्तरकारो की लेखरूप में भाषान्तर करने की उदारता
और अन्यों-कृत भावार्थ, विशेषार्थ, खुलासा अर्थ और स्व. भी आज संभाविन भावी विद्वत्ममाज के वंश को ले बैठने तंत्र रचनाओं को (जिनसे मतभेद --विवाद पनप सकता है) में एक कारण बनी है ? क्योंकि आज सभी को भाषान्तर आगमन कहा जाय । भले ही उमे आगमानुसारी श्रेणी मे, सुलभ हैं - चाहे वे गलत ही क्यो न हो-लोग उन्हें पढ़ते (बिना किसी गारण्टी के) रख लिया जा सकता हो। है। उन्हें विद्वानों की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती और किसी प्रकार की कोई मीमा न होने से एक मन्दिर मे तो वे विद्वानों के उत्पादन से मुख मोड़ बैठे हैं। पाठशालाएं हमने एक अभिनन्दन ग्रन्थ तक को शास्त्र की चौकी पर, भी समाप्त प्राय हैं। पंडिनों ने आनी पीढी तैयार करने स्वाध्याय के रूप मे देखा है । यानी कुछ भी हो, कोई ग्रंथ से भी इसीलिए विराम लिया है कि अब ममाज को उनकी हो, चल मन्दिर मे --2मी परम्परा चल पड़ी है। मोच आवश्यकता नहीं । भाषान्तरों की बहुतायत से पहिले एक लेना चाहिए कि ममोसरण कोई ऐमी लाइब्रेरी नहीं है समय था जब सरस्वती सदा लक्ष्मी के सिर पर बैठती थी जहां सभी प्रकार के ग्रंथ रख दिए जाय । मन्दिर की अपनी -लोग पडितों को सम्मान देते थे, जबकि आज लक्ष्मी ने मर्यादा है, मन्दिर मे शास्त्र-भण्डार है, जिसमे मूल और सरस्वती को दासी बना लिया है। दूसरी बात इन भाषाप्रामाणिक दिव्यध्वनि ही स्थान पा सकती है। पूजा और जैन तरो से यह हुई कि पागम मे अनागम भी घसपैठ करने पदों की पुस्तकें वीतरागभक्ति के लिए रखी जा सकती है। लगा --गलत भाषान्तर भी अर्घ पाने लगे-जिनवाणी
हम जिन, जैन, जिनवाणी और अपने विद्वान् गुरुगण अप्रामाणिक (मिश्रित) होने लगी। और तीसरी बात जो तथा गुरुसमो के श्रद्धालु है। लोग जिन भाषातरकार विद्वानो सर्वाधिक भयावह है वह है --मूल आगम के भावो लोप का के गुणगान करेंगे, शायद उन विद्वानो के अपेक्षाकृत हम प्रसग । जब सभी लोग मूल की उपेक्षा कर मात्र भाषान्तर अधिक भक्त होंगे। कितनो ही को तो हम किसी हद तक पढ़ते रहेगे तो एक समय ऐमा भी आयेगा जब मन्दिरों में प्रामाणिक भी मानते होगे। पर, हमसे यह पाप न हो शेष बचा मूल-आगम भी रखा-रखा जीर्ण-शीर्ण हो जायगा। सकेगा कि हम उन्हे 'जिन' और निर्ग्रन्थ आचार्यों के सम लोगों के ज्ञान में तो उसके रहने का प्रश्न ही नही। बिठा, उनके भाषान्तरो आदि को जिनवाणी के साथ अर्घ हम यह भी जानते है कि हमारी उक्त योजना से दिला जिनवाणी की अवहेलना करें। उनके भाषान्तर चाहे धार्मिक-साहित्य के प्रति व्यापारी मनोवृत्ति के लोगों के बहमत की दृष्टि में ठीक ही क्यो न हो? हम तो उन मन और उनके व्यापार को धक्का लग सकता है, वे इसका भाषान्तरों को आगमानुकूल भी हो सकते है ऐसा कह, विरोध भी करें तो हमे आश्चर्य नही। पर, हमें यह भी आगम नहीं हैं- ऐमा ही कहेंगे । हमारा यह भी विश्वास इष्ट नहीं कि किसी व्यापार के लिए धर्म और आगम का है कि स्वयं कोई भाषान्तरकार भी अपने भाषान्तर को स्वरूप ही बदल दिया जाय । सोचने की बात यह है कि आगम घोषित करने की चेष्टा न करेगा। अस्तु : जिस धर्मके अपने मूल-आगम ही सुरक्षित नही रहें उस धम