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________________ पं० शिरोमविदास कृत 'धर्मसार सतसई' जस पम नम में चर्बाह सुरंग, कोटि अठारह कहे तुरंग । छहस चालीस जे पत्तन जानि, कोटि छपान ग्राम बखानि ॥७० बीस सस सुन्दर पुर कहीजं, चौदह सहस वाहन पुनि लहीजे । बस निन्यानवे कहै बताय, द्रोणा मुख तुम जानहु राम ॥७१ बेट सहस षोडश अति वसं, ' दीप जो छप्पन तिनकै दिसं । सहस अट्ठाईस वन वहं सोईं, कोटि एक पारी मन मोहे ।।७२ कोटि एक हल चलहि जुसीर, तीन कोटि गो बिरका भीर । कुल काय रूप चतुर अधिकारी, सहस छयानवे नारी प्यारी ।।७३ सहस बत्तीस नर्तकी जानि, दासी दास को कहै बवानि । चौरासी बन मन्दिर साल, नव निधि चौदह रतन विशाल ॥७४ (पृष्ठ १४ का शेषांश) कठूमर, चिंचणी, (चिलगोजा ) नारिकेल, बट, सेंवल, ताल । पुण्य-वृक्ष- चम्पक, कचनार, कणवीर, (कर्नर ), टउह, कउह, बबूल, जासवण्ण, (जाति ?), शिरीष, पलाश, बकुल, मुचकुन्द, अर्क, मधुवार । स एवं पुष्प लताएं लवंग, पूगफल, बिरिहिल्ल, सल्ल, सन्दर्भ-सूची १. निर्णयसागर प्रेस बम्बई से प्रकाशित (१६०२ ई०)। २. माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रंथमाला बम्बई से प्रकाशित ( १३१६ ई०) । ३. देखो भारतीय संस्कृति के विकास में जैनधर्म का योगदान पृ० ११५ । ४. प्राकृत टैक्स्ट सोसाइटी, वाराणसी से प्रकाशित ( १९१४ ई०) । १२. दे० र साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन खाली १९७४ ई०) । अठारह सहस म्लेच्छपति राय, कर जोड़े सोने बसु पाय । बत्तीस सहस विद्याधर ईस, १४.३० वारशास्त्र भण्डार जयपुर की प्रथसूचियां भा. २ १४-२२. ६० वढ्ढमाणचरिउ (सम्पा० डा० राजाराम जैन ) भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली पृ० ४-७ । कर जोड़े पुनि नावे शीस ॥७५ व्यंतर देव सेवा बहु करें, भोग्य वस्तु ले आगे धरं । मिष्ट आहार सेज सुखदाई, भोग विलास करं सुख पाई ।।७६ दोहा - सेवालीस सहस जोजन कहै, दो सौ त्रेसठ जानि । दृष्टि चक्रवर्ती जानिजं, गणधर कही बखानि ॥७७ बारह योजन शब्द सुनि पुनि धरै विक्रिया रूप | सहस छयानवे रूप धरि, सुभुगतं भोग अनूप ॥ ७८ सोरठा - चक्रवर्ती पद सार, जिनवर पूजा तं लहैं । उपजे ऋद्धि अपार, को पंडित तहं गिनु कहै ॥७६ चौपाई - जो जिनेन्द्र पूजें मन लाय, मन वच काय शुद्ध धरि माय । प्रात काल जिन पूजा करें, सो नर पाप पुंज परि हरं ॥५० (क्रमशः ) २३ केतकी, कुरव, कणिकार, पाटलि, सिन्दूरी, द्राक्षा, पुनर्नवा, बाण, वोर, कच्चूर । कन्द - जिमीकन्द, पीलू, मदन एवं गंगेरी । युनिवर्सिटी प्रोफे० ( प्राकृत) एवं अध्यक्ष संस्कृत प्राकृत विभाग, ३० दा० जन कालेज, आरा ( बिहार ) ( मगध विश्वविद्यालय) २३-२४. पासणाह• १४२२१-४ । २५-२७. दे० बड्ढमाणचरिउ, भूमिका पृ० ३०-११ । २८-२६. पासणाहू० ११२।५-१६ । ३०. राजस्थान पुरातत्त्व विद्यामन्दिर जोधपुर से प्रकाशिव (१९६३ ई० ) 1 ३१-३२. बढ्माणचरिउ भूमिका पृ० ७० । ३३. पासणा० १२/७-८ । ३४. वे० पासणाह० १।६।१-४ | ३५-३७. दे० दिल्ली जैन डाइरेक्टरी पृ० ४ । ३८. तीर्थंकर महावीर एवं उनकी आचार्य परम्परा ४११३८ एवं जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह द्वि० भाग भूमिका पृ. ०४. ३९. दे० वासणाह० अस्य प्रशस्ति । ४०. वासणाह ७२.
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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