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________________ २२, 441 कि०२ पूजा हेतु काहुं फल दियो, लोभ जानि के आपहि लियो। यात होय पुत्र करि हीन, संतति मुख देखे नहीं दीन ॥५२ पर वियोग करि परहिं सतावै, इष्ट हानि नर यात पावं। बार बार अति करहिं जु शोक, यात होय अनिष्ट सजोग ॥५३ जिनवर वाणी लोपं मूढ़, विकथा वचन कहै अति गूढ़। ज्ञानावरणी बंध सोय, यात भव भव मूरख होय ॥५४ कुत्सित त करि दड देह, समकित भेद न जाने एह। भवनत्रिक मे जे नर भ्रम, अनंतकाल तहं मिथ्या गर्म ॥५५ जिन गुरु देख न माथो नमै, अपनी इच्छा जह तहं भ्रम । यात पर घर होय जु दास, शीत उष्ण भुगतै अति त्रास ॥५६ वेश्या दासी भुगत पापी, कुत्सित विषय करै सतापी। यात होय नपुंसक दोषी, मनसा विष जर अति रोषी ॥५७ माया करि जे फंद बनाव, पर को मोहि आप सुख पाये। सदा करै विषयनि की बात, नारी देह घरे जीव यात ॥५० उत्तम करनी मनसा आनं, उत्तम देव धर्म गुरु जाने । छोड़े कपट मुद्ध मति लीन, यात पुरुष होय प्रवीण ॥५६ विद्या दान सदा हित देहि, ते नर पंडित पदवी लेहि। दुखित देखकै करुणा आवै, ते नर रोग लेश नहीं जाने ॥६. अल्प वित्त में देहि जुदान, गुरु की सेवा कर पति मान। भव भव ते नर भुगतै भोग, बहु धन पाय भलो संयोग ॥६१ पर उपकार कर जे प्राणी, दीरष बायु लहै शुभ वाणी। कर साधु सगत मन लाय, ___ उत्तम कुल उपज सुखदाय ॥१२ जे जिन मन्दिर रहि अनूप, तहां धर्म बहु बढे सरूप । पुनि जिन विम्ब भरावं सार, लक्षण व्यंजन सहित सुडार ॥६३ भत्र चंवर सिंहासन घर, चन्द्रोपम भा मण्डल करे। दुदुभी सहित कर करताल, झालर घण्टा ताल रसाल ॥६४ झारी कलश धूप घट-जहां, जलोट कनिका सोहै तहो । गीत नृत्य वादित बजाय, करहि महोत्सव बहु धन लाय॥ संघ सहित पनि तीरथ चल. सित क्षेत्र बह पुण्य मिल। पूजा वस्तु द्रव्य अति धनी, महा सुगंध उज्वल अति बनी॥६१ पूजा वस्तु भग नही की, होय पाप अति धर्महि छोज । सकल वस्तु जैसी गुरु कही, विधि सौ कर बाप नर सही ॥६७ संघ सहित देहिं बहु दान, पूजा करिबद्ध रावं मान। इह विधि करहि प्रतिष्ठा होय, पक्रवर्ती पद पावं सोय ॥१५ होय ऋषि अति सुब की बानि, को पंडित सहं कहरवानि । र अब गज चौरासी लाख, कोटि चौरासी किंकर राख
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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