SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४, वर्ष ३६ कि०२ अनेकान्त वह उसी प्रकार मुरझा जाता है, जिस प्रकार इष्ट जन के धूलि-धूसरित रहता था । खेलो सरय उनकी करधनी की वियोग में बधु-बान्धव गण । सूर्य के डूबते ही उसकी शब्दायमान किणियां सभी को मोहती रहती थी।" कवि समस्त किरणे अस्ताचल मे तिरोहित हो गई है। इस के इस बाल-लीला वर्णन ने हिन्दी के भक्त कवि सूरदास प्रसग में कवि उत्प्रेक्षा करते हुए कहता है कि ठीक ही है को सम्भवत: सर्वाधिक प्रभावित किया है। कृष्ण की बालविपत्ति काल में अपने कर्मों को छोडकर और कौन किसका लीलाओ के वर्णनों की सदशता तो दृष्टिगोचर होती ही साथ दे सकता है ? सूर्य के अस्त होते ही अस्ताचल पर है, कही-कही अर्धालियो में भी यत्किञ्चित् हेर-फेर के लालिमा छा गई है, वह ऐसी प्रतीत होती है, मानों अन्ध- साथ उनका उपयोग कर लिया गया प्रतीत होता है। यथाकार के गुफा-ललाट पर किसी ने सिन्दूर का तिलक ही श्रीधर-अविरल धूली धूसरिय गत्त २०१५॥५. जड़ दिया हो। यथा : सूर-धूरि धूसरित गात १०१००१३. अत्थ इरि-सिहरिवि रत्तु पवटल तम-विलउ , श्रीधर-होहल्लरु (ध्वन्यात्मक) २॥१४८. सझए अवर-दिसि वयसियहा सिंदूरे कउ-लिलउ॥ सूर-हलराव (ध्वन्यात्मक) १०१२८१८, ३।१७:१३-१४ श्रीधर-खलियक्खर वर्याणहि वज्जरतु २११४१३. अन्धकार मे गुफा ललाट पर सिन्दूर के तिलक की सूर-बोलत श्याम तोतरी बतियां १०।१४७. कवि-कल्पना सचमुच ही अद्भुत एव नवीन है। श्रीधर-परिवारगुलि लग्गउ सरतु २०१४।४, कवि का रात्रि-वर्णन प्रसग भी कम चमत्कार-पूर्ण सूर-हरिको लाइ अगुरी चलन सिखावत १०॥१२८१८ नहीं । वह कहना है कि समस्त ससार घोर अन्धकार की इस प्रकार दोनो कवियो वे वर्णनो की सदृशताओं को गहराई में डबने लगा है इस का.ण विलासिनियों के कपोल रक्ताभ हो उठे है तथा उनक नीवी-बन्ध शिथिल देखते हुए यदि सक्षेप मे कहना चाहे तो कह सकते हैं कि श्रीधर का सक्षिप्त बाल-वर्णन सूरदास कृत कृष्ण की बालहोने लग है । कवि कहता है : लीलाओ के वर्णन के रूप में पर्याप्त परिष्कृत एवं विकछुड़ नीवी गप सझ विलासिगो अगत्तण गुण-घुसिणविलासिणी।। ३।१८।३ सित हुआ है। वनस्पति-वर्णनबाल-लोल। वर्णन कवि श्रीधर की विविध वनस्पतिया भी कम आश्चर्यकवि श्रीधर ने शिशु पाल की मीलाओ का भी बड़ा जनक नही। अटवी-वर्णन के प्रसग मे विविध प्रकार के सुन्दर वर्णन किया है। उनकी बाल एव किशोर लीलाए, वृक्ष, पौधे, लताएँ, जिमीकन्द आदि के वर्णनो में कवि ने उनके असाधारण सौन्दर्य एव अंग-प्रत्यग की भाव-भंगि- मानो सारे प्रकृति-जगत को साक्षात् उपस्थित कर दिया माओं के चित्रणो मे कवि की कविता मानो सरसता का है। आयुर्वेद एवं वनस्पति शास्त्र के इतिहास की दृष्टि से स्रोत बनकर उमड पडी है। कवि कहता है कि शिशु कवि की यह सामग्री बड़ी महत्वपूर्ण है । कवि द्वारा वर्णित पार्व कभी तो माता के अमृतमय दुग्ध का पान करते, वनस्पतियो का वर्गीकरण निम्न प्रकार है"। कभी अंगठा चूसते, कभी मणि-जटित चनचमाती गेंद शोभा-वृक्ष-हिताल, तालूर, साल, तमाल, मालूर, धव, खेलते तो कभी तुतली बोली में कुछ बोलने का प्रयास धम्मण, वस, खदिर, तिलक, अगस्त्य, प्लक्ष, करते। कभी तो वे स्वय रेग-रेगकर चलते और कभी चन्दन । परिवार के लोगों की अंगुली पकड़कर चलते । जब वे फल-वृक्ष-आम्र, कदम्ब, नीबू, जम्बीर, जामुन, मातुमाता-पिता को देखते तो अपने को छिपाने के लिए वे लिंग, नारगी, अरलू, कोरटक, कोल्ल, हथेलियों से अपनी हो आँखें ढंक लेते। चन्द्रमा को देखकर फणिस, प्रियंगु, खजूर, तिन्दुक, कैथ, ऊमर, वे हंस देते थे। उनका जटाजूट धारी शरीर निरन्तर (शेष पृ० २३ पर)
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy