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प्राच्य भारतीय भाषाओं में पार्वनाथ चरित की परम्परा
सन्धि १२-पार्श्व के भवान्तर तथा हयसेन द्वारा दीक्षा- तापस, राज-दरबारो के सूर-सामन्त हों अथवा साधारण ग्रहण । अन्त्य-प्रशस्ति ।
प्रजाजन, उन सभी के मनोवैज्ञानिक वर्णनो में कवि की पासणाहचरिउ में उपलब्ध समकालीन कछ ऐति- लेखनी ने अदभुत चमत्कार दिखलाया है। इस प्रकार के हासिक तथ्य
वर्णनो मे कवि की भाषा भावानुगामिनी एव विविध रस __ पासणाहचरिउ यद्यपि एक पौराणिक महाव्यि है, एव अलकार उनका अनुकरण करते हुए दिखाई देते है। उसमें पौराणिक इतिवृत्त तथा देवी-चमत्कार आदि प्रसगो पार्श्व प्रभु विहार करते हुए तथा कर्वट, खेड, मडव की कमी नहीं। इसका मूल कारण यह है कि कवि विबुध आदि पार करते हुए जब एक भयानक अटवी में पहुंचते श्रीधर का काल संक्रमणकालोन युग था। कामिनी एव है तब वहां उन्हें मदोन्मत्त गजाधिर द्रुतगामी हरिण, काञ्चन के लालची मुहम्मद गोरी के आक्रमण प्रारम्भ हो भयानक सिंह, घुरघुराते हुए मार्जार एव उछल-कूद करते चुके थे , उसकी विनाशकारी लूट-पाट ने उत्तर भारत को हुए लंगूरों के झुण्ड दिखाई पड़ते है। इस प्रसग में कवि पर्रा दिया था। हिन्दू राजाओ मे भी फट के कारण द्वारा प्रस्तुत लगूरो का वर्णन देखिए, कितना स्वाभाविक परस्पर में बड़ी कलह मची हुई थी। दिल्ली के तोमर बन पड़ा है :राजा अनंगपाल को अपनी सुरक्षा हेतु कई युद्ध करने पड़े
....... ....."सिर लोलि र लगूर ॥ मे। कवि ने जिस हम्मीर-वीर के अनगपाल द्वारा पराजित केवि कूरु घुरुहरहिँ दूरस्थ फुरुहरहि ॥ किए जाने की चर्चा की है , सम्भवत वह घटना कवि की केवि करहिं ओरालि णमुवती पउरालि । आँखों देखी रही होगी। कवि ने कुमार पावं का यवन- केवि दाढ दरिसति अइविरसु विरसंति ॥ राज के साथ तथा त्रिपृष्ठ का हयग्रीव के साय जैसे कम- केवि भूरि किलकिलहिं उनलेवि वलि मिलहि ॥ बद्ध एवं व्यवस्थित युद्ध वर्णन किए है, वे वस्तुत. कल्पना कवि णिहय पडिकल महि हणिय लगर ।। प्रसूत नहीं किन्तु हिन्दू-मुसलमानो अथवा हिन्दू राजाओ केवि करु पसारति हिसण ण परति ।। के पारस्परिक युद्धों के आँखो देखे अथवा विश्वस्त गुप्त- केवि गयणयल कमहि अणवरउ परिभभहिं ।। चरों द्वारा सुने गए यथार्थ वर्णन जैस प्रतीत होते है। कवि अरुण णयहि भगुरिय बयणहि ॥ उसने उन युद्धों में प्रयुक्त जिन शस्त्रास्त्री की चर्चा की है,
... ... ... . ." तासात अकयस्थ तसति ॥ वे पौराणिक ऐन्द्रजालिक अथवा देवी नहीं अपितु खुरपा, केवि धुहिं सविसाण, कपविय पर पारण ।। कृपाण, तलवार, धनुष-बाण जैसे वे ही अस्व है जो कवि केवि दृट्ठ कुप्पति परिकाहि झड़प्पति ।। के समय में लोक प्रचलित थे। आज भी वे हरयाण एव केवि पहुण पावति उसणत्थु धावति ।। दिल्ली प्रदेशों में उपलब्ध है और उन्ही नामो से जाने
७१४।४-१६ जाते हैं। ये युद्ध इतने भयंकर थे कि लाखो-लाखों विधवा अन्य वर्णन-प्रसगो में भी कवि का कवित्व चमत्कार नारियों एवं अनाथ बच्चो के करुण-क्रन्दन को सुनकर पूर्ण बन पड़ा है। इनमें कल्पनाओ की उर्वरता, अलकारी वेदन-शील कवि को लिखना पड़ा था:
को छटा एव रसो के अमृत-मय प्रवाह दर्शनीय है। इस ......टका होइ रणगण रिउ वाणावलि पिहिय णहगणु। प्रकार के वर्णनो में ऋतु-वर्णन, अटवी-वर्णन, सन्ध्या, संगरणाम जि होइ भयकरु तुरय-दुरय-रह-सुहड-रवयकरु । रात्रि एव प्रभात-वर्णन तथा आश्रम-वर्णन आदि प्रमुख हैं।
१॥३, ५ कवि की दृष्टि में सन्ध्या किसी के जीवन मे हर्ष उत्पन्न कवि श्रीधर भावों के अद्भुत चितेरे है । यात्रा-मार्गों करती है तो किसी के जीवन मे विषाद । वस्तुतः वह हर्ष
हो अथवा अटवियो मे उछल. एवं विषाद का विचित्र संगम काल है। जहाँ कामीजनों, बजटर बन-विहारो मे क्रीड़ायें करने वाले चोरों एवं उल्लुओं एव राक्षसों के लिए वह श्रेष्ठ वरदान
MAT माश्रमों मे तपस्या करने वाले है, वही पर नलिनी-दल के लिए घोर-विषादका काल ।