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________________ वर्णी-वाणी से "अनेक पाप हैं लेकिन सबसे बड़ा पाप परिग्रह ही है। यह सबके मन चंचल बना देता है । इसकी दशा गुड़ के समान है। एक बार गुड ने सोचा कि जो देखो वही मुझे खा जाता है यदि सूखा होता हूं तो डली की डली लोग खा जाते हैं, यदि कुछ गीला हो जाता हूं तो पकवान बनाकर लोग खा लेते हैं और कहीं अधिक पतला हो गया-राव बनकर बहने लगा तो तमाखू पीने वाले गुड़ाखू बनाकर पी जाते हैं, इस प्रकार तो संसार में जीन्ग बड़ा कष्ट का है। ऐसा विचार कर वह परमेश्वर के सामने गया और बोला- भगवन्, आप तो सबकी रक्षा करने वाले हैं। मैं भी सबमे से एक हूं अतः मेरी भी रक्षा करो; जो देखो वह मुझे चट कर जाता है। गुड़ की प्रार्थना सुनकर परमेश्वर चुप हो रहे। पांच मिनट बाद गुड ने फिर पूछा- महाराज, क्या आज्ञा होती है ? तब परमेश्वर ने कहाजा, भाग जा, तुझे देख मेरे मुंह में भी पानी आ गया। सो मैया, परिग्रह ऐसी ही चीज है । सबके मन को लुभा लेता है। अतः ऐसा अभ्यास करो जिसमे उससे तुम्हारा सम्बन्ध छूटे ।" X X X X 'मेरा यह दृढ़तम विश्वास हो गया है कि धनिक वर्ग ने पण्डितवर्ग को बिल्कुल ही पराजित कर दिया है। यदि उनको कोई बात अपनी प्रकृति के अनुकूल न रुचे तब वे शीघ्र ही शास्त्र - विहित पदार्थ को भी अन्यथा कहलाने की चेष्टा करते हैं ।" २०-६-५१ ( पृ० ३ का शेषांश) ३. दोहाकोष, महापंडित राहुल सांकृत्याययन, पृ० ५ । ४. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग २, डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, पृ०२४८ । ५. हिन्दी के विकास में अपभ्रश का योग, डा० नामवर सिंह, पृ० २१७ । ६. जैन शोध और समीक्षा, डा० प्रेमसागर जन, पृ० ५६ । ७. गूढ़ आध्यात्म को व्यक्त करने की दो पशैलिया है, उपनिषद् में इन्हें अपरा और परा विद्या कहते है, बौद्धो मे परमार्थ और व्यवहार सत्य कहते है और जैनों में निश्चय और व्यवहार नय की कल्पना है । 5. (i) मध्यकालीन धर्मसाधना, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ० ४४ । (ii) अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहम्यवाद, डा० वासुदेवसिंह, पृ० ४४-४५ । ६. अपभ्रंश साहित्य, हरिवंश कोछट, पृ० २७० । १०. परमात्मप्रकाश, २.१३८, २.१४०; २.७४; २७६ | ११. श्री ब्रह्मदेव ईसा की तेरहवी शती और प० दौलतराम अठारहवी शती में हुए । १२. ( अ ) अपभ्रा काव्य परम्परा और विद्यापति, डा० अम्बादत्त पत, पृ० २३६ । (ब) जैन शोध और समीक्षा, डा० प्रेमसागर जैन, पृ० २३६ । १३. 'योगसार' की टीका ब्र० शीतल प्रसाद ने १३ जून १६३६ को बम्बई श्राविकाश्रम से लिखी तथा पूज्यश्री १०८ मुनि विजय सागर जी तथा श्री १०८ मुनि बिमल सागर जी के दिशा निर्देश मे संवत् २००६ मे गुना ( म०प्र०) से प्रकाशित हुई । यह टीका सविस्तार इसमें एक-एक दोहे को व्यास शैली मे व्याख्यायित किया गया है । 7
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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