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________________ अपभ्रंश कविश्री जोइन्दु का साहित्यिक अवदान अहरन ( निहाई) के ऊपर घन की चोट, सडासी से खीचना, चोट लगने से टूटना आदि दुखो को सहती है। अर्थात् लोहे की संगत से लोक प्रसिद्ध देवतुल्य अग्नि दुख भोगतो है इसी तरह लोह अर्थात् लोभ के कारण परमात्म तत्त्व की भावना से रहित मिथ्या दृष्टि वाला जीव घनत सदृश नरकादि दुःखों को भोगता है। अलकार प्रयोग की यह परम्परा उपनिषद्, गीता आदि सभी भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथो मे मिलती है । 'परमात्मप्रकाश' की भाषा अधिक समास-बहून, जटिल तया 'णत्व' बिधान बहुल दिखाई पड़ती है । वाग्धाराओं और लोकोक्तियों के व्यवहार से भाषा सौव म वर्द्धन हुआ है। वस्तुतः परमात्मप्रकाश' ज्ञान गरिष्ठ और विचारप्रधान है। इसमे कुल ३४५ पद्य है प्रथम अधि कार मे १२६ पौर द्वितीय अधिकार मे २६ है जिनमे ५ गाथाएं एक सारा मानिनी १ चतुपदिका और शेष सभी दोहे है । पुनरुक्ति होते हुए भी इस ग्रन्थ का विषवियन नहीं है। 'परमकाश' के टीकाकार ब्रह्मदेव कहते हैं-'अत्र भावना प्रथेममालिक पुनरुक्त दूषण नाहित' 'परमात्मप्रकाण' पर ब्रह्मदेव की संस्कृत टीका और प० दौलतराम को हिन्दी टीका महत्त्वपूर्ण कविश्री जोइन्दु की दूसरी रचना 'योगसार' है जो कि 'परमात्मप्रकाश' की अपेक्षा अधिक सरल और मुक्त रचना है। विषय विवेचन मे क्रमबद्धता का अभाव है । अपभ्रंश का यह ग्रन्थ वस्तुत 'परमात्मप्रकाश' के विचारो का अनुवर्तन है जो सुबोध और काव्योचित ढंग से वर्णित । १०८ छंदों की इस लघु रचना मे दोहो के अतिरिक्त पाई और दो सोरठो का भी निर्वाह हुआ है । 'योगसार' मे 'कविधी जोइन्दु ने आध्यात्मच की गूढ़ता को बडी ही सरलता से व्यञ्जित किया है जिनमें उनके सूक्ष्मज्ञान एवं अद्भुत अनुभूति का परिचय मिलता है । यथा जो पाउ वि सो पाउ मुणि सन्बु इ को त्रिणे । संदर्भ - संकेत १. (क) 'परमात्मप्रकाश' की भूमिका, श्री ए. एन. उपाध्ये पृ० ६७ । जो पुपु वि पाउ वि भणइ सो घुह को विहवे ।। अर्थात् जो पाप है उसको जो पाप जानता है, यह तो सब कोई जानते हैं किन्तु जो पुण्य को ही पाप कहता है, ऐसा पडित कोई विरला होता है । ग्रथ के प्रणयन का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कविश्री जोइन्दु कहते हैं कि ससार से भयभीत और मोक्ष के ममुरमुक प्राणियों की आत्मा को जगाने के लिए मैंने इन दोहों का सृजन किया है। यथा--- समारह् भय भीयएण जोगिचन्द मुणिएण । अप्पा सवोहण कथा दोन मनेष ॥ ( योगसार ३. १०८ ) 'परमात्मप्रकाश' और 'योगसार' ग्रन्थों का प्रकाशन श्री रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला से डा० ए० एन० उपाध्ये के सम्पादन में सम्पन्न हो चुका है ।" 'योगसार पर ब्र शीतलप्रसाद ने सविस्तार टीका लिखी हैं जो सन् १९५२ में गुना से प्रकाशित हुई है।" कविश्री जोइन्दु ने ब्रह्म के स्वरूप, उसकी प्राप्ति के उपाय आदि का माहक विवरण जनसामान्य की भाषा में प्रस्तुत कर अपनी उदार मनोवृत्ति का परिचय दिया है। वस्तुत मुनिश्री जोइन्दु अपभ्रश माहित्य के महान् आध्या वादी कवि कोविंद है जिन्होन सतिकारी विचारों के साथ-साथ आत्मिक रहस्यवाद की प्रतिष्ठा कर मोक्षमार्ग की उपादेयता सिद्ध की है। कविश्री जोइन्द की वाणी में अनुभूति का वेग एवं सवज्ञान की गम्भीरता समाविष्ट है । कविश्री का प्रभाव अपभ्रंश कविया साथ-साथ हिन्दी के मन कवियों पर भी पड़ा है। कबीर के काति कारी विचारधारा का मूलत कविश्री जाइका काव्य अपायक रहस्यवाद निरूपण मे मुनिधी जोइन् का स्थान सर्वोपरि है तथा भावधारा, विषय, छद, शैली की दृष्टि से कविश्री जोइन्दु का साहित्यिक अवदान महनीय है । मंगलकलश (ख) अपभ्रंश काव्यमयी' की भूमिका, श्री गाधी, पृ० १०२-१०३ । २४, सर्वोदयनगर आगरा रोड, अलीगढ़-२०२००१ ( उ० प्र० ) (ग) अपभ्रम भाषा और साहित्य, डा० देवेन्द्रकुमार जैन, पृ० ८० २. जैन साहित्य की हिन्दी साहित्य को देन, श्री रामसिंह तोमर प्रेमी अभिनंदन ग्रंथ, पृ० ४६८ ।
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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