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प्राचार्य सोमदेव की प्राथिक विचारधारा
चन्द्रशेखर एम० ए० आचार्य सोमदेव सूरि दिगम्बर सम्प्रदाय के उद्भट करना दूसरो का बोझ ढोने के समान है।' धन की वास्तबाचार्य थे। उनकी विद्वता मे किसी को भी संदेह नही हो विक सार्थकता तभी है, जब उससे मन और ईन्द्रियों की सकता। उनका ज्ञान बहमुखी था और वे विविध विषयो पूर्ण तृप्ति हो। के ज्ञाता थे। आचार्य सोमदेव बहुज धर्मशास्त्री महाकवि, कोष का महत्त्वदार्शनिक, तर्कशास्त्री एव अपूर्व राजनीतिज्ञ थे। यशस्तिलक
राजशास्त्र प्रणेताओ ने राज्यागो मे कोप को बडा
महत्त्व प्रदान किया है। आचार्य सोमदेव लिखते है कि बम्पू एवं नीतिवाक्यासृत के अवलोकन से उनके विशाल
कोष ही राजानो का प्राण है।' सचित कोष संकटअध्ययन एवं विविध शास्त्रों के ज्ञाता होने के प्रमाण मिलते
काल में राष्ट्र की रक्षा करता है। वहीं राजा राष्ट्र को हैं। उनकी अलौकिक प्रतिभा पाठको को चमत्कृत कर
सुरक्षित रख सकता है जिसके पास विशाल कोष है । देती है सोमदेव सूरि कृत साहित्य के अध्ययन से उनका
सचित कोप वाला राजा ही युद्ध को दीर्घकाल तक चलाने धर्माचार्य होना निश्चित होता है। धर्माचार्य होने के कारण
में समर्थ हो सकता है। दुर्ग मेस्थित होकर प्रतिरोधात्मक उनमें उदारता का महान गुण भी दृष्टिगोचर होता है । वे धार्मिक, लौकिक, दार्शनिक सभी प्रकार के साहित्य के
युद्ध को चलाने के लिए भी सुदृढ कोष की नाबश्यकता
होती है। इसलिए कोष को क्षीण होने से बचाने तथा अध्ययन के लिए सबको समान अधिकारी मानते है ।
सचित कोष की वृद्धि करने क लिए प्राचीन आवार्यों ने आचार्य सोमदेव ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ नीतिवाक्या
अनेक उपाय बतलाये है। राजनीति के ग्रन्थो में अपने मृतम में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारो पुरुषार्थों का
महत्त्व के कारण ही कोष एक स्वतन्त्र विषय रहा है। वर्णन किया है। अर्थ को धर्म के समकक्ष स्थान प्रदान
आचार्य सोमदेव ने भी अन्य आचार्यों की भाति इस विषय करके आचार्य ने प्राचीन परम्परा मे एक महान् सुधार
पर भी प्रकाश डाला है। नीतिवाक्यामतम मे कोष स मुद्देश किया है । जैन संन्यासी होते हुए भी उन्होने अर्थ के महत्व
सम्बन्धी बातो का दिग्दर्शन कराता हैं। का भली-भांति अनुभव किया है। धर्म के उपरान्त अर्थ
___ आचार्य सोमदेव ने कोष मम्देश के प्रारम्भ में ही पुरुषार्थ की व्याख्या करते हुए आचार्य मोमदेव ने लिखा
कोप की परिभाषा दी है। उनके अनुसार जो विपत्ति और है कि "जिससे सब प्रयोजनो की सिद्धि हो वह अर्थ है।"
सम्पत्ति के समय राजा के तन्त्र की वृद्धि करता है वह कोष जो मनुष्य सदैव अर्थशास्त्र के सिद्धान्न के अनुसार
है। धनाढ्य पुरुष अथवा राजा को धर्म और धन की प्रर्थानुबन्ध (व्यापारिक साधनो से अविद्यमान धन का
रक्षा के लिए तथा सेवको के पालन के लिए कोष की रक्षा संचय, संचित की रक्षा और रक्षित को वृद्धि) से धन का
करनी चाहिए। कोष की उत्पत्ति राजा के साथ ही हुई उपभोग करता है वह उसका धनाढ्य हो जाता है।
है। जैसा कि महाभारत के दस बर्णन से प्रकट होता हैनैतिक व्यक्ति को अप्राप्त धन की प्राप्ति, प्राप्त की
'प्रजा ने मनु के कोष के लिए पशु और हिरण्य का पचासवाँ रक्षा और रक्षित की वृद्धि करने मे प्रयत्नशील रहना।
भाग तथा धान्य का दसवाँ भाग देना स्वीकार किया। चाहिए, क्योकि ऐसा करने वाला व्यक्ति ही भविष्य मे
समस्त आचार्यों ने कोप के महत्त्व को स्वीकार किया सुखी रहता है। धन के सदुपयोग पर भी नीतिकार ने ।
है। आचार्य सोमदेव का उपरोक्त कथन---"कोष ही बहुत बल दिया है । वे लिखते है कि जो लोभी पुरुष अपने
राजाओ का प्राण है"-इमके महान् महत्त्व का द्योतक धन से तीथों (सत्पात्रों) का आदर नही करता उनको दान
है। आचार्य सोमदेव आगे लिखते हैं कि जो राजा कोड़ीनहीं देता उसका धन शहद की मक्खियो के समान अन्य कोडी करके अपने कोष की वृद्धि नहीं करता उसका व्यक्ति ही नष्ट कर देते है ।' मनुष्य को अपने सुखो का भविष्य में कल्याण नहीं होता।' आचार्य सोमदेव लिखते बलिदान करके धन सग्रह नही करना चाहिए। यह बात हैं राज्य की उन्नति कोष से होती है न कि राजा के शरीर नीति के विरुद्ध है। अनेक कष्ट सहन कर धनोपार्जन से ।" आगे वे लिखते हैं कि जिसके पास कोष वरीत