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________________ न जाने किस चीज की तलाश में, वर्षों से भटक रही हूं मैं । अनेक युगों से, अनेक भवों मे, जी और मर रही हूं मैं । अक्सर सोचती, यह कुछ और नहीं, केवल ज्ञान-पिपासा है; और मैं स्वय को, गागर में ज्ञान सागर की, अथाह जल - राशि भरे हुए, भारी-भरकम ग्रन्थों में डुबो देती । किन्तु वर्षों के अध्ययन के बाद भी, स्वयं को वहीं का वहीं खड़ा पाती । बल्कि महसूस करती, कि मेरी तलाश कुछ और बढ़ गई है । तब ज्ञान को छोड़, मैं भक्ति का मार्ग अपनाती ; न जानें कितने, तीर्थों की खाक छानती । किन्तु वर्षों की यात्रा के बाद भी, जहां से चली थी, वहीं पहुंच जाती । फिर वहीं महसूस करती, पाती कि तलाश कुछ और बढ़ गई है। 'कस्तूरी मृग' डा० (कुमारी) सबिता एक दिन, अपनी इसी पराजय पर, ग्लानि और अवसाद में डूबी, पद्मासन में बैठी, अर्ध उन्मीलित नेत्रों से, पर से उदासीन हो, निज में झाँक रही थी, कि अचानक, न जाने कहां से, हवा का एक तीव्र झोका आया, और अपने साथ समस्त विषाद को बहा ले गया । तभी सहसा, भीतर से झिलमिलाई, चिर आनन्द, चिर स्वतन्त्र, आत्म की एक किरण । तब मैंने जाना, जिसकी तलाश में, युगों से भटक रही हूं, ८४ लाख योनियो मे, जी और मर रही हूं, वह तो कस्तूरी मृग की भाँति, मेरे ही अन्तर मे, विद्यमान है । ७/३५, दरियागंज, नई दिल्ली -२
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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