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१४, वर्ष ३६,
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तीन दिवस जब बीतें जबहीं,
पुंगी (सुपारी) समान आहार ले तवही ।। १५६
आलस निद्रा श्रम नही खेद,
रात दिवस दीसे नही भेद । मध्यम पात्र दान फल कहे,
मध्यम भोग भूमि सुख लहै ।। १५७ आयु पल्ल होय भुगते जहां,
कोस टोय देह है उन्नत तहां । अवर भोग सब इह विधि सार,
भारज भुगते सुख अपार ॥१४८ जघन्य पात्र दान फल जोग,
पावहि जघन्य भूमि के भोग एक पहल तहं आयु जु होय,
एक कोस तनु जानो सोय ।।१५९ भाजन भूख न वस्त्र अहार,
मनवांछित फल भुगतं सार । इह विधि आयु सब पूरी करें,
पुण्य तें देव लोक पद धरं ।। १६० ॥ इति तीन पात्रदान फल वर्णन ॥ अथ कुपान दान फल वर्णन
नीच जाति जो तनु ल
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कुपात्र दान फल तासी कहै । हाथी घोड़े दासी दास,
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देश कोस बहू सुख मे वास ।।१६१
करहि पाप नर अति सुख पाय,
नीच स्वभाव न छांडे जाय । करहि विनोद रंग रति मान,
अनेकान्त
षट् ऋतु सुख भुगतं चित तानि ॥१६२
जे तियंच सुखनि में लीन,
कुपात्र दान फल जानो प्रवीन । अपने स्वारय पहि सतावै,
पुन ते मर दुर्गति दुख पावे ।।१६३ ॥ इति कुपात्र दान फल वर्णन ॥
अथ अपात्र वान फल वर्णन
सर्पहि दूध पियावहि रूप,
विष को करहिं न जानहि मूढ़
त्यों अपात्र दान दुख देय,
दाता भवभव दुर्गति लेय ॥१६४ ऊसर बरसे फल नहीं होय,
पायर नाव तिरे नहीं कोय । दुर्जन संगति गुण नहीं नहे,
विषयी पोख न धर्महि लहै ।। १६५ दोहा - छिपनी केला सर्प मुख, स्वाति बूंद जल पाय ।
मोती शुभ कर्पूर पुनि विष उपजे दुखदाय ।।१६६ सोरठा - जल बरसे अति घोर, भूमि पर सब में जगं ।
जहं जैसो गुण जोर, तह तेसो फल सो लहै ॥ १६७ अंधकूप धन डारिए, हु भलो करि जानि जे । अपात्र दान मति वारि, जिनवर सीख जु मानिजे ; । १६८ दोहा - कुदान कबहु न दीजिए, दिए पाप अति होय । दुर्गति में सशय नही, भवभव भटकै सोय ॥१६९ ।। इति अपात्र दान फल वर्णन ॥ अथ जल गालन क्रिया-चौपाई सात लाख जल योनि भए,
अरु अनत त्रस तामे भए । स की दया जानि जल गालि,
यह आचार कर व्रत पालि ।।१७० दीरघ हस्त सवा के जानि,
पनहा (अर्ज) एक हस्त के मान नूतन वस्त्र पुनि दूनो करें,
इह विधि गानि धर्म व्योपरे ॥ १७१ दोय दण्ड जल गालो रहे,
पुनि सो अनंत राशि अति लहै । जब जब जल लीजं निज काम,
तव तब जल छानो निज धाम ॥१७२ जो जल छानि छानि घट धरो;
पुनि सो जल, जल में लं करो । एक बूंद जो धरनी परं,
अनंतराशि जीव छिन में मरं ॥ १७३ सोरठा - ढीमर पारिधि जानि, जुग जुग पाप जु जे किए। इत उत एक प्रमान अनगाल्यौ बूंदक पिये ॥१७४ चौपाई - याम युगल प्रासुक जल रहै;
अष्ट प्रहर तासी (तो) निर्वहै ।