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'नीतिवाक्यामृत' में राजकोष की विवेचना
0 चन्द्रशेखर एम० ए० (अर्थशास्त्र)
'नीतिवाक्यामृत' आचार्य सोमदेव सूरि की प्रसिद्ध कोष को क्षीण होने से बचाने तथा संचित कोष की वृद्धि रचना है । इस ग्रन्थ का प्रणयन विक्रम की ग्यारहवी करने के लिए प्राचीन आचार्यों ने अनेक उपाय बतलाये शताब्दी में किया गया और इसकी रचना चालुक्यों के हैं। राजनीति के ग्रन्थों मे अपने महत्व के कारण ही राज्याश्रम में हुई। यह ग्रन्थ आचार्य सोमदेव के विख्यात कोष एक स्वतन्त्र विषय रहा है। आचार्य सोमदेव ने भी चम्पू महाकाव्य के उपरा-त लिखा गया था। नीति- अन्य राजशास्त्र-प्रणेताओ की भांति इस विषय का भी वाक्यामृत का प्रधान विषय है राजनीति । राज्य एव विशद विवेचन किया है । नीतिवाक्यामृत मे कोष समुद्देश्य शासन-व्यवस्था से सम्बन्ध रखने वाली प्राय: सभी आव. कोष सम्बन्धी बातों का दिग्दर्शन करता है। श्यक बातों का विवेचन किया गया है। राज्य के सप्तांग- कोष की परिभाषा-आचार्य सोमदेव ने कोष अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोश, बल एवं मित्र के लक्षणो पर समुद्देश्य के प्रारम्भ मे ही कोष की परिभाषा प्रस्तुत की पूर्ण प्रकाश डाला गया है । साथ ही राजधर्म की बड़े है। उनके अनुसार जो विपत्ति और सम्पत्ति के समय विस्तार के साथ व्याख्या की गई है । इस राजनीति प्रधान राजा के तन्त्र की वृद्धि करता है और उसको सुसंगठित ग्रन्थ में मानव के जीवन-स्तर को समुन्नत करने वाली करने के लिए धन की वृद्धि करता है वह कोष है। धर्मनीति, अर्थनीति एवं समाजनीति का विशद विवेचन धनाढ्य पुरुष तथा राजा को धर्म और धन की रक्षा के मिलता है। यह ग्रंथ मानव-जीवन का विज्ञान और दर्शन लिये तथा सेवको के पालन पोषण के लिए कोष की रक्षा है। यह वास्तव में प्राचीन नीति साहित्य का सारभूत करनी चाहिए । कोष की उत्पत्ति राजा के साथ ही हुई अमत है। मनुष्यमात्र को अपनी-अपनी मर्यादा मे स्थिर जैमाकि महाभारत के वर्णन से स्पष्ट होता है। उसमें रखने वाले राज्यप्रशासन एव उसे पल्लवित-सधिन एवं लिखा है कि प्रजा ने मनु के कोष के लिए पशु और सरक्षित रखने वाले राजनीतिक तत्वो का इममे वैज्ञानिक हिरण्य का पचीसवां भाग तया धान्य का दसवां भाग देना दष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है।
स्वीकार किया। जैन सन्यासी होते हुए भी उन्होने अर्थ के महत्त्व का कोष का महत्त्व-सम्पूर्ण आचार्यों ने कोष का भली-भांति अनुभव किया है । यह बात उनको दूरदर्शिता महत्व स्वीकार किया है । आचार्य सोमदेव का पूर्वोक्त की परिचायक है। नीतिवाक्यामृत मे धर्म, अर्थ और कथन-कोष ही राजाओ प्राण है-इसके महान महत्व काम की विशद व्याख्या की गई है। अर्थ पुरुषार्थ की का द्योतक है । आचार्य सोमदेव आगे लिखने हैं कि जो व्याख्या करते हुए आचार्य सोमदेव लिखते हैं-जिमसे राजा कोड़ी-कोड़ी करके अपने कोष की वृद्धि नही करता प्रयोजनों की सिद्धि हो वह अर्थ है।
उमका भविष्य में कल्याण नहीं होता । आचार्य कौटिल्य राजशास्त्र प्रणेताओं ने राज्यांगो मे कोष को बहुत कोष का महत्व बतलाते हुए लिखते है कि सबका मूल महत्त्व दिया है। आचार्य सोमदेव लिखते है कि कोष ही कोष ही है । अतः राजा को मर्वप्रथम कोष की सुरक्षा के राजाओं का प्राण है। संचित कोष सकट काल मे राज्य लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। महाभारत में भी ऐसा रक्षा करता है । वही राज्य राष्ट्र को सुरक्षित रख सकता वर्णन आता है कि राजा को कोष की सुरक्षा का पूर्ण है जिनके पास विशाल कोष है। सचित कोप वाला राजा ध्यान रखना चाहिये । क्योकि राजा लोग कोष के ही ही युद्ध को दीर्घकाल तक चलाने में समर्थ होता है। दुर्ग अधीन है तथा राज्य की उन्नति भी कोष पर आधारित में स्थित होकर प्रतिरोधात्मक युद्ध को चलाने के लिए है। कामन्द ने कहा है कि प्रत्येक से यही सुना जाता है भी सुदृढ़ कोष की अत्यन्त आवश्यकता होती है । इसलिए कि राजा कोष के आश्रित है । कोष के इस महत्त्व के