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________________ २२, वर्ष , कि०४ अनेकान्त अणपों का विचार करना अपायविचयक है। मोक्ष के काययोग के होने पर ही होता है, इसी कारण इसे सूक्ष्म अभिलाषी होते हुए भी जो कुमार्गगामी है उनका विचार क्रिया कहा जाता है । सूक्ष्म काययोग मे स्थित केवली उस करते रहना कि वे मिथ्यात्व से किस तरह छूटे-यही सूक्ष्म काययोग को भी रोकने के लिए इस शुक्ल ध्यान विचय है। को ध्याता है। विपाक विचय-जीवों के एक भव या अनेक भव व्यत्सर्ग-परिग्रह का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है। सम्बन्धी पुण्य कार्य और पाप कर्म के फल का तथा उदय, व्युत्सर्ग तप ही वि+उत+सर्ग के मेल से बना है। 'वि' उदीरण, संक्रमण, बन्ध और मोक्ष का चिन्तन करना ही अर्थात् विविध, उत अर्थात् उत्कृष्ट और सर्ग का अर्थ विपाक विचय नामक धर्म है। त्याग है । कर्मबन्ध के कारण विविध बाह्म और आभ्यन्तर संस्थान विचय-पर्याप्त अर्थात भेद रहित तथा दोषो का उत्तम त्याग अर्थात् जीवन पर्यन्त के लिस्लाभादि वैत्रासन, झल्लरी और मृदग के समान आकार सहित की अपेक्षा से रहित त्याग व्युत्सर्ग है । यह व्युत्सर्ग का ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक का चिन्तन करना निरूक्र्थ है । यह आभ्यन्तर और बाह्य के भेद से दो सस्थान विचय नामक धर्म ध्यान है और इसी से संबधित प्रकार का है। क्रोधादि आभ्यन्तर तथा क्षेत्रादि द्रव्य अनुप्रेक्षाओं का भी विचार किया है। लोक के आकार बाह्य व्युत्सर्ग है। तथा उसकी दशा का विचार करना ही सस्थानविचय है। आभ्यन्तर व्यत्सर्ग-मिथ्यात्व, वेद, राग, हास्य, शक्ज्ञ ध्यान-धर्म ध्यान पूर्ण कर लेने के पश्चात रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, चार कषायें इन चौदह क्षपक अति विशुद्ध लैश्या के साथ शुक्ल ध्यान को ध्याता अन्तरग परिग्रहों का त्याग आभ्यन्तर व्युत्सर्ग है । अनहै। शुक्ल ध्यान भी चार प्रकार का होता है--पृथक्त्व गार धर्मामृत मे व्युत्सर्ग का स्वरूप इस प्रकार किया सवितर्क, सवितर्क एकत्व, सूक्ष्मक्रिया और समुच्छिनकिया। है-पूर्वाचार्य कायत्याग को भी अन्तरंग परिग्रह का त्याग मानते हैं । यह कायत्याग नियतकाल और सार्वकालिक पथक्त्व सवितर्क-क्योकि अनेक द्रव्यो को, तीन भेद से दो प्रकार का है। उनमे नियतकाल के भी नित्य योगो के द्वारा उपशान्त मोहनीय गुणस्थान वाले मुनि और नैमित्तिक दो भेद है तथा सार्वकालिक त्याग के भक्त ध्याते हैं, इसी कारण इसे पृथक्त्व कहते है। श्रुत को वितर्क प्रत्याख्यान मरण, इगिनी मरण और प्रायोपगमन मरण कहा जाता है और पूर्वगत अर्थ में कुशल साधु ही ध्याता ये तीन भेद कहे हैं। है। इसी कारण इस ध्यान को सवितर्क कहा जाता है। बाह्य व्युत्सर्ग-क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, तथा अर्थ व्यञ्जन और योगो के परिवर्तन रूप वीचार के चतुष्पाद, यान, शयन, आसन, कुप्य और भाण्ड इन दस होने के कारण इस शुक्ल ध्यान को सवीचार भी कहा । परिग्रहों का त्याग करना बाह्य व्युत्सर्ग है। जिस प्रकार गया है। तुष सहित चावल का तुष दूर किए बिना उयका अन्तर्मल एकत्व विसर्क-क्योकि क्षीण कषाय गुण स्थानवर्ती का शोधन करना शक्य नहीं है, उसी प्रकार वाह्य परि. मुनि के द्वारा एक ही योग का अवलम्बन लेकर एक ही ग्रह रूपी मल के त्याग के बिना उससे सम्बद्ध आभ्यन्तर द्रव्य का ध्यान किया जाता है अतः एक ही द्रव्य का अव- कर्ममल का शोधन करना शक्य नहीं है लम्बन लेने के कारण इसे एकत्व कहते है। व्युत्सर्ग तप से परिग्रहों का त्याग हो जाने से सक्ष्म क्रिया-यह शुक्ल ध्यान श्रुत के अवलम्बन निग्रंथता की सिद्धि होती है। जीवन की आशा का अन्त, से रहित होने के कारण सवितर्क है और अर्थ व्यञ्जन निर्भयता तथा रागादि दोषों की समाप्ति हो जाती है और और योगों का परिवर्तन रूप होने के कारण अवीचार । रत्नत्रय के अभ्यास में तत्परता आती है। इसमें सोच्छ्वासादि क्रिया सूक्ष्म हो जाती है और सूक्ष्म
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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