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________________ २४, वर्ष २९, कि०४ अनेकान्त कारण ही मनु ने लिखा है कि सरकार तथा कोष का रहती है, क्योंकि सेना और अन्य राजकर्मचारियों को वेतन निरीक्षण राजा स्वयं ही करे क्योंकि इनका सम्बन्ध राजा में नाणक (प्रचलित मुद्रा) ही देना पड़ता है। इस मुद्रा से से ही है । याज्ञवल्क्य राजा को यह आदेश देते है कि उसे व्यक्ति अपनी आवश्यकता की वस्तुओं का सरलतापूर्वक प्रति दिन राज्य की आय-व्यय का स्वयं निरीक्षण करना क्रय कर सकता है । स्वर्ण और रजत की अधिक मात्रा चाहिए तथा इस विभाग के कर्मचारियों द्वारा संग्रहीत होने से नाणक तैयार किए जा सकते हैं । इसीलिए उत्तम स्वर्ण एवं धनराशि को कोष में जमा करना चाहिए। कोष वही है जिसमें सोना और रजत अधिक मात्रा में आचार्य सोमदेव का कथन है कि राज्य की उन्नति कोष हो। इसके अतिरिक्त यदि कोई शत्रु राजा के देश पर से होती है, न कि राजों के शरीर से । आगे वे लिखते हैं आक्रमण कर दे और उसके पास युद्ध करने के लिए कि जिसके पास कोष है, वही युद्ध मे विजयी होता है। पर्याप्त सेना न हो तो राजा साम-दामादि से शत्रु को इस प्रकार आचार्य कोष को राज्य की सर्वाङ्गीण लोटा सकता है । शत्रु को तभी धन से सतुष्ट किया जा उन्नति एवं उसकी सुरक्षा का अमोघ साधन मानते हैं। सकता है जबकि राजा का कोष स्वर्ण एवं रजत से परिकोष वाले राजा को सेवक और सैन्य सब कुछ मूलभ हो पूर्ण हो। सकते हैं परन्तु कोषहीन राजा को कोई भी वस्तु सुलभ कोष-विहीन राजा की स्थिति नहीं होती। कोषविहीन राजा नाम मात्र का ही राजा आचार्य सोमदेव सूरि ने धनहीन राजा की निन्दा की है। क्षीण कोष वाला राजा अपनी प्रजा पर धन-संग्रह के हैं, क्योकि उनकी दृष्टि में राज्य की प्रतिष्ठा एव सुरक्षा लिए अनेक प्रकार के अत्याचार करता है। जिसके परि- की आधारशिला कोष ही है। आचार्य सोमदेव का कथन णामस्वरूप प्रजा दुखी होती है और वह उसके अत्याचार है कि धनहीन व्यक्ति को तो उसकी स्त्री भी त्याग देती से तंग आकर उस देश को छोडकर अन्यत्र चली जाती हैं, फिर अन्य पुरुषों का तो कहना ही क्या ? इसका अभिहै। इससे राजा जन-शक्ति-विहीन हो जाता है। प्राय यही है कि धनहीन राजा को उसके सेवक तथा उत्तम कोष-इस बात का समर्थन सभी विद्वान् पदाधिकारी त्यागकर अन्य राजा की सेवा मे चले जाते करते हैं कि राज्य की प्रतिष्ठा, रक्षा एवं विकास के लिए है। जिससे वह असहाय अवस्था को प्राप्त होकर नष्ट हो कोष की परम आवश्यकता है। इसके साथ ही आचार्यों ने जाता है। आचार्य का यह भी कहना है कि धनहीन इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि कौन-सा कोष उत्तम व्यक्ति (राजा) चाहे कितना ही कुलीन एव सदाचारी है । आचार्य सोमदेव उत्तम कोष का वर्णन करते हए क्यो न हो, सेवकगण उसकी सेवा करने को प्रस्तुत नही लिखते हैं कि जिस में स्वर्ण, रजत का प्राबल्य हो और होते क्योकि वहां से उन्हे धन प्राप्ति की कोई आशा नही व्यावहारिक नाणको (प्रचलित मुद्राओ) की अधिकता हो होती। इसके विपरीत नीच कुल मे उत्पन्न हुए एव चरित्र तथा जो आपात्काल मे बहत व्यय करने में समर्थ हो वह भ्रष्ट व्यक्ति से धनाढ्य होने के कारण उसे धन का स्रोत उत्तम कोष है। समझ कर सभी लोग उसकी सेवा को प्रस्तुत रहते हैं। कोष के गुण-आचार्य सोमदेव ने कोष के गुणों उक्त विवेचन का अभिप्राय है कि कुलीन और सदाकी जो व्याख्या की है वह आर्थिक दृष्टि से बहुत महत्त्व. चारी होने पर राजा को राजतन्त्र के नियमित तथा व्यवपूर्ण है । आपत्तिकाल में धान्य और पशुओ के विक्रय से स्थित रूप से चलाने के लिए न्यायोचित उपायो द्वारा पर्याप्त धन प्राप्त नहीं हो सकता। अत: जिन वस्तुओं का कोष की वृद्धि करनी चाहिए। विक्रय तुरन्त हो सके, ऐसी ही वस्तुओ का अधिक मात्रा आचार्य सोमदेव ने आगे लिखा है कि उस तालाब के में संग्रह राजकोष में होना आवश्यक है। इसी उद्देश्य से विस्तीर्ण होने से क्या लाभ है जिसमे पर्याप्त जल नही सोमदेव ऐसी वस्तुओ का संग्रह करने के लिए राजा को है। परन्तु जल से परिपूर्ण छोटा तालाब भी इससे कही परामर्श देते है । नाणक की भी कोष मे बड़ी आवश्यकता अधिक प्रशंसनीय है । सारांश यह है कि मनुष्य कुलीनता
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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