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पतन का कारण : परिग्रह
D श्री पप्रचन्द्र शास्त्रो, नई दिल्ली
आज विश्व संत्रस्त है, चारों ओर आपा-धामी, मारा- उन अनर्थों को अपरिग्रह धर्म के प्रचार से ही दूर किया मारी की भरमार है। भले ही शाकाहारी-पशु मिल-बाँट जा सकता है। लोगो की विस्तार-लालसा जैसे जैसे न्यून कर खा लें यह संभव है। पर, यह कदापि सभव नहीं कि होतो जायगी वैसे वैसे उन अंशों में सुख-शान्ति होती अभक्ष्य-भक्षी मानवरूपी र दानव मार-धाड़ और छीना- जायगी। क्या कहें ? आज महान परिग्रही व्यसनसेवी व्यक्ति झपटी से विराम ले सके, जबकि साधारण और शाकाहारी तक अहिंसा का नारा लगाकर दूसरों को जगाने का दम्भ व्यक्ति भी परिग्रह लालसा और एक छत्र राज्य की चाह भरने में लगा है। राज-चोर भी अधिक पूजा-पाठ और में दूसरे के अस्तित्व को ही समाप्त करने की चाह मे अधिक स्वाध्याय में लीन तक देखा जाता है। पर, इससे देखे जाते हैं। आज इस विसंगति को दूर करने के लिए उसके चौर-कर्म या संचय-भाव मे शायद ही कोई कमी
हिंसा, करुणा, दया जैसे पुग्यो के सवय और हिंसा, आती हो। दूसरे शब्दो में वह पराए-अश को आत्मसात् निर्दयता तथा क्रूरता जैसे पापो के परिहार पर जोर करने के कारण पर-दुखदायी होने से महान हिंसक भी है। दिया जा रहा है, चारो और मासाहारी और शाकाहारियो नीतिकारो ने कहा है-जैसे शुद्ध जल से सागर नहीं भरते द्वारा इनके प्रचार की धम मची है। किसी अश मे मासा- वैसे कोई एक व्यक्ति भी शुद्ध-न्याय-नीति से उपाजित धन रिक-निविघ्न जीवन के लिए यह शुभ सकेत है। हम से धनी नहीं हो सकता। अति परिग्रही बनने के लिए ही चाहते है लोगो का ध्यान और भी गहराई पर जाए अनेक पाप-पुंजों के साधन अपनाने पड़ते हैं। फिर भी खेद और वे इस अनर्थ ताण्डव की जड़ को पकड़े। जब तक है कि यह मानव अपने में समाहित दानवपन छोड़ने के इसके मूल पर प्रहार नहीं किया जाता,आत्म-तोष और लिए मूल-अपरिग्रह धर्म को नहीं अपनाता । अपितु अपनी पर-परिग्रह-सचय की मर्यादा नही बाधी जाती, परिग्रह- दानवता को छुपाने के लिए भ. महावीर की अहिंसा निर्वृत्ति को लक्ष्य नहीं बनाया जाता तब तक चाहे जैस आदि जैसे बचकाने नारे लगाकर अन्य लोगो को भरमाता भी, जितना भी शोर मचाएं-सुख-शान्ति सर्वथा ही है और स्वयं मे महान हिंसक बना रहता है, झूठ बोलता असभव है।
है, चोरी आदि दृष्कर्म करता रहता है। यहा तक कि कई ___हम कहते रहे है कि सब पापो का मूल परिग्रह है। लोग बाह्य छोड़ने का दिखावा कर परायो के उपकार के जैन-तीर्थकरो ने दिगम्बर-निष्परिग्रही होकर ही सर्व बहाने धन के सग्रह मे लगे तक देखे जाते हैं। हालांकि पापों के परिहार-रूप धर्म का मार्ग प्रशस्त किया। हम उद्देश्य की पूर्ति होना, न होना भवितव्याधीन है। हाँ ऐसे यह मानने को कदापि तैयार नही कि परिग्रह के होते हुए लोग परोपकार के बहाने प्रत्यक्ष मे अपना अपकार अवश्य अन्य कोई व्रत अणु या महाव्रत रूप में पूर्णता को प्राप्त कर लेते हैं। वे स्वयं भगवद् भजन से वंचित रह जाते है। हो सकता हो। यदि ऐसा सभव होता तो वस्त्र या राग- कहा भी हैदेषरूप परिग्रह की बढ़वारी मे भी अहिंसा, सत्य आदि 'माए हरिभजन को ओटन लगेकपास ।' महाव्रतपूर्ण फलित हो जाते और सवस्त्र श्रावक भी महाव्रती वर्षों पहिले एक चर्चा के मध्य हमने काशी में चन्दा बन सकते थे-परिग्रह में भी मुक्त हो जाती; पर, ऐसा इकट्ठा करने वाले, भभूतधारी एक गैरक संन्यासी से नही है। इसी भांति आज दुनियां मे जो अनर्थ हैं और जो कहा-महाशय, जब मापने गैरुकवाना धारण कर भगवद राहिले होते रहे है वे सब परिग्रह-भावना के ही फल है। भजन काय बना लिया, तबमापको पराई चिन्ता का