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________________ मुक्ति में करुणा एक विसंगति जीवित है। जहाँ तक आयुक्म है वहाँ तक जीव, जीवन उक्त सभी तथ्यो के प्रकाश में हमें सोचना होगा कि या जीवित निर्देश है। हम 'मूल' की सुरक्षा को बढ़ावा दें या भाषान्तरों के जीव और आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में धवला प्रचार का सम्मान करें। हमने तो ऐसा देखा है कि कहींपुस्तक १४, ५, ६, १६ पृ०१३ में जो प्रसंग शंका-समा- कही अर्थकर्ता अपने भाषान्तर में पद के पद विना अर्थ के धान द्वारा उठाया है वह दाटव्य है। वहां जीवत्व को ही छोड़ देते हैं, इससे पाठक वास्तविकता से अजान औदयिकभाव तक कह दिया है। तथाहि रह जाते है जैसे हमने एक गाथा का अर्थ इस भांति देखा 'सिद्धा ण जीवा जीविदपुवा इदि। सिद्धाणं पि ह विदपवा हिसिला है जो अधूरा हैजीवत्तं किण्ण इच्छिज्जदे ? ण, उवयारस्स सच्चत्ताभावा. 'गोम्मर सगहसुत्तं गोम्मटदेवेण गोम्मटं रइयं । दो। सिद्धेस पाणाभावण्णहाणव वत्तीवो जीवत्तं ण पारि कम्माण णिज्जरलैं तच्चठ्ठवधारणळंच ।। णामियं किंतु कम्मविवागज......॥ तत्तो जीवभावो ओव- जो यह गोम्मटसार ग्रथ का सग्रहरूप सूत्र है वह श्री इओ त्ति सिद्धं ।' वर्धमान नामा तीथंकर देव ने नयप्रमाण के गोचर कहा है और वह ज्ञानावरणादि कर्मों की निर्जरा के लिए तथा -सिद्ध जीव नही है, जीवित पूर्व है। तत्त्वो के स्वरूप का निश्चय होने के लिए जानना शंका-सिद्धो के भी जीवत्व स्वीकार क्यो नही चाहिए।' किया जाता? उक्त अर्थ में 'गोम्मट देवेण गोम्मट रदय' का मूल समाधान-नही, सिद्धों में जीवत्व उपचार से (कहा) अर्थ छोड़कर, गाथा में अनिदिष्ट शब्दो का अर्थ 'श्री वधहै (और) उपचार को सत्य मानना ठीक नहीं। सिद्धों मे मान नामा तीर्थकर देव ने नय प्रमाण गोचर कहा है' प्राणो का अभाव अन्यथा बन नही सकता। इसलिए जोड़ दिया है। जीवत्व पारिणामिक भाव (स्वभाव-भाव) नही है किन्तु इस प्रकार की विसतिया इकट्ठी न हो और मूल कर्मोदय जन्य है । इसलिए 'जीव' (ये) भाव औद- आगम सुराक्षत रह, इस दृष्टि से हम यद्वा-तद्वारूप भाषायिक है, ऐसा सिद्ध है। न्तरा क अनुकूल नहा । हम ता एस सिद्धान्तज्ञा क निर्माण धवलाकार ने सिद्धान्त को सुरक्षित रखने की दृष्टि के पक्ष म ह जा भविष्य म मूल-आगमो का सुरक्षित रखसे इस बात को भी खोला है कि तत्त्वार्थ सूत्र मे जिस कर मूल मर्थ का सही प्रतिपादन कर सके। उक्त प्रसग जीवत्व को पारिणामिक भाव कहा है, वह (सांसारिक) में ऊपर आए 'जानत. पश्यतश्चोध्वं' श्लाक का आगमानुप्राणो पर आधारित न होकर आत्मा के चेतना गुण को कूल अर्थ भी सोचिए ! हम तो इतना ही प्रार्थना करग लक्ष्य कर ही कहा है। भाव ऐसा है उनकी दृष्टि व्यवहार किप्ररूपित जीव पर न होकर व्यापक शब्द आत्मा के चेतन __ 'देवदेवस्य यश्चक्र , तस्य चक्रस्य या प्रभा। गुण पर ही रही है । तथाहि तयाच्छादित सर्वांगं, विद्वासानन्तु मागमम् ॥' 'तच्चत्थे जं जीवभावस्स पारिणामियत्तं परविदतं पाण तीर्थकर समूह को ज्ञानप्रभा से जिसका सर्वाङ्ग धारणतं पड़ध ण परुविद किंतु चेवणगुणमवविय तत्य आच्छादित है, ऐस आगम की विद्वद्गण हत्या न करे। पावणा कदा। धव० पु० १४।५।६।१६ पृ० १३
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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