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________________ ટાઈટલ – ૨ નું ચાલુ सर्जन कराया जो कि सोलह विभाग में प्रकाशित हुआ | सिद्धांत महोदधि का गौरवशाली पद आपश्रीको गुरु द्वारा अर्पण कीया गया । जयवंता जिन शासन के आप चमकते हुए झवेरात थे उसी प्रकार आप एक कुशल झवेरी थे । गांव और शहरों में से अनके कीमती रत्नों की जांच कर हाथ में लिये और सुयोग्य बनाकर जिन शासन के दरबार में चमकाये । आप श्रीकी भेट दी हुदई, सैकडों संयमीयो की अमूल्य निधि ( खजाना), श्री संघ कभी भी भूल सकता नहीं. संयमी ओ की वैयावच्च के लिये आप श्री हंमेशा तत्पर रहते थे। समुदाय अथवा गच्छ पक्ष के भेद से अलग रह कर “जो गिलाणं पडिसेवई सो मां पडिसेवई " के जिनवचन को आपने जीवन सात कीया था । आहा की, उपनि की, शिष्यों की अथवा पदवी की स्पृहा से वे कभी भी उसमें लिप्त नहीं हुए । पाप भीरुता यह उनका जीवन पर्याय था । वीतराग के शासन के प्रति अविहड राग था, परंतु विषयों के प्रति प्रचंड वैराग्य था । इस विषय काल में भी आपश्री को विकार की पडछाई भी कभी भी स्पर्श नहीं कर सकी। ऐसे सुविशुद्ध ब्रह्मचर्य के वे स्वामी थे। इसीलिये इनके नाम में ब्रह्म मंत्र का सामर्थ्य था । उनके नाम स्मरण मात्र से विकार से मुक्त होने का अनुभव अनेक व्यक्तियों ने कीया था । जडराग, भस्मसात, जीवप्रेम, आत्मसात और संयम शुद्धि जीवन सात, यह था उनके व्यक्तित्वका स्फटिकोपम निर्मल प्रतिविम्ब । सकल संघ के प्रति अपार वात्सव्य था । संघ समाधि और संघ एकता के लिये हमेशा चिंतातुर और प्रयत्नशील रहते थे। आपका उच्च ध्येय नैष्ठिक ब्रह्मचर्य पालन के साथ साधुओं को प्रेम, वात्सल्यपूर्वक पढा गुणा कर अच्छे संयम ज्ञानी त्यागी, तपस्वी को शासन रक्षक बनाना । 1 - आपसी के गुणों की फेहरिस्त काफी लम्बी है फिर भी उनमें निम्न गुणों का निखार झलकता है(१) सिद्धांत महोदधि (२) आजन्म वैरागी (३) नैष्ठिक ब्रप्रचारी (४) वात्सल्य वारिधि (५) - गुणानुरागी (६) वैयावृत्य तत्पर (७) कर्म साहित्य निपुणमति (८) श्रमण शिल्प ( ९ ) श्रमण संघ सर्जक (१०) स्वाध्याय संमति (११) नित्य एकासणी ( १ ) आजन्म मिष्ठान एवं आम के त्यागी (१३) जिन भक्त अनुरागी (१४) गुरुचरणा सेवी (१५) शासन शिरोमणी (१६) पंचशत श्रमण सार्थाधिपति (१७) निर्दोष सं (१८) करुणा के सागर (१९) जिनाला बिहंगी (२०) ज्ञान गंभीर (२१) गणगरिम व्यक्तित्व के स्वामी (२२) दीक्षा दानेश्वरी (२३) पापभीरु (२४) शिवमार्ग सार्थवाह (२५) मित भाषि (२६) गुणोपवृहक (२) स्थितप्रज्ञ (२८) जितशत्रु (२९) अप्रतिश्रावी (३) अंतर्मुख (३१) दोषरिपु (३२) शरणागत वत्सल (३) सूरि पुरंदर (३४) पंचाचार परिपालक (३५) समाधान प्रेमी (३६) संघ एकता के आग्रही । बीर शासन की परम्परा में जगद्गुरु हीरसूरीश्वरजी म. सा. के बाद सर्वाधिक और सर्वागिण तरीके शासन सुरक्षा, आराधना में प्रभावना निमित्तरूप ऐसे विशाल श्रमण संघ के सर्जन करने वाले श्रुतोद्धार और क्रियोद्धार, जैनोद्धार एवं जीर्णोद्धार आत्मोद्धार और विश्वोद्धार के कर्ता, गच्छपक्ष और समुदाय से भेद रहित तरीके जिनकी महानता को एक आवाज से सबने स्वीकारी है ऐसे कलिकाल कल्पतर परम पवित्र मूर्ति परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा साहेब थे । नम्रता नीरिहता, निर्मलता और नैष्ठिक ब्रह्मचर्च की गुण गरीमा से आप गुरु के द्वारा सूरीपद के साम्राज्य धारक बनकर सारणा वारणा चोयणा परिच्छेपणा पूर्वक वीर के वारस वंश वट वृक्ष का सर्जन कीया। सूरि रामचन्द्र जंबूहीर राजतिलक -भुवनभानु आदि सूरी मुनिवृंद के गुरु प्रगुरु प्र आदि पदों को प्रदान कर अडसठ वर्ष के निर्मल दीना पर्याय को पालकर आप परम ब्रह्म में लीन बन गये - - आज आपकी स्वर्गारोहण तिथि के शुभ अवसर पर आपको शिष्यवृंद के प्रेरक बल को प्राप्त कर आपके दशायें हुए मार्ग पर अग्रेसर होने के लिये हम सभी कृतसंकल्प है । लेखक : पू. मुनि गंभीररत्न विजयजी म. कल्याणजी सौभाग्यचंद पेढी पींडवाड शा. मीलापचंदजी सुरीचंद -
SR No.537264
Book TitleJain Shasan 2000 2001 Book 13 Ank 26 to 48
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
PublisherMahavir Shasan Prkashan Mandir
Publication Year2000
Total Pages354
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shasan, & India
File Size22 MB
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