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________________ . सभापति शेठ खेतशीभाईका व्याख्यान. ४९ थी। भारतकी अन्य जातियोंकी अपेक्षा जैनियोंकी विधवाओंकी औसत संख्या बहुत ज्यादा है। इतनी विधवाओंके विलापके सामने कौनसी जाति जी सकती है ? ज्यादा खेद तो इस बातका है कि २० से ४० वर्षकी आयुकी दो लाख स्त्रियोंमेंसे लगभग पचास हजार स्त्रियां विधवाए थीं, जो वृद्धविवाह और जातियोंके संकुचित क्षेत्रोंका ही परिणाम है । इन अंकोपर हम पडदा नहीं डाल सकते । यह अपने दुर्भाग्यकी बात है, कि इस प्रश्नपर समाजने शान्तिके साथ विचार करनेके लिये आज तक कष्ट नहीं उठाया है। अन्य जातियोंकी अपेक्षा इस विषयमें सबसे ज्यादा खराब स्थिति हमारी जातिकी है, इसलिये हमको इस विषयमें सबसे ज्यादा निर्भीकतासे और दुरदर्शितासे काम करनेकी आवश्यकता है । मार्ग सीधा है; परन्तु रूढीके पंजेसे जो हमको धर्मका भेष रचकर डराती है, छूटना कठिन है। बिवाहको भिन्न भिन्न रीतियों और सहभोजन आदि बातें मात्र सामाजिक विषय है, धार्मिक विषय नहीं, इसलिये धर्मनाशका 'हाऊ' बतानेवालीके साथ शान्तिपूर्वक दलीले करनेके और सामाजको विनाशके मुखमें जानेसे बचानेके मार्ग साफ कर देने चाहिये । मालूम होता है कि स्वामीवत्सल भोजनके अर्थको आज हमारे भाई भूल गये है । कितने ही ग्रामोमें-जिनको कि हम बेसुधरे हुए बताते है आजभी जैनधर्म पालनेवाले बनिये, पाटीदार, भावसार आदि भिन्न २ जातिके लोग एक साथ चैट कर भोजन करते है । मगर अपने आपको सुधारे हुये बतानेवालांने स्वामी-वात्सल्यके स्थानमें, छूत छातकी प्रतिष्टा की है । यह है अपने सुधारका चिन्ह ! क्या यह हमारा कर्तव्य नहीं है, कि हम कल्पित भेदां तथा शास्त्रविरूद्ध बहमों और रुढियोंका परित्याग कर समाजको नष्ट होनेसे बचावें ? जितना भी हो सके उतना जल्दी हमें इस कामको करना चाहिए । साधर्मी भ्राताओ ! मैं आपसे आग्रह पूर्वक निवेदन करता हूं कि आप इस प्रश्नपर गंभी रतासे विचार करे, समाचार पत्रो व भाषणोंद्वारा इसका ऊहापोह करे, और इसके लिये किसी आचरणीय मार्गका अवलम्बन करे ।। एकताके व्यावहारिक मार्ग । बन्धुओ ! यह तो निर्विवाद है कि आजकी राजकीय स्थितिमे हम एकताके बिना कदापि जीवित नहीं रह सकेगे । रोटी बेटी व्यवहारके काटेको धीरे धीरे नहीं मगर शीघ्रताके साथ निकालकर फेंक देनेकी कोशिश किये बिना और अनु . त्पादक व्यक्तियोंकी भयंकर संख्यामे कमी किए बिना जैन समाजको टिका रख
SR No.536514
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1918 Book 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1918
Total Pages186
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size18 MB
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