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________________ ४७ - સભાપતિ શેઠ ખેતશીભાઈ વ્યાખ્યાન. बौद्धोंमें, ईसाइयोंमें, सिक्खोंमें, मुसलमानोंमें और पारसियोंमें संख्या बढ़ती गई है और जब विशाल हिन्दूजातिमें टका जितनी कमी हो गई है तब हमारेमें साढ़े छः टका जितनी घटती हुई है । इससे समझमें आयगा कि बहुत ही भयंकर संयोगोंके बीचमें होकर हम गुजर रहे हैं । पारसी, सिक्ख या हिन्दू यदि जागृत होनेमें और सुधार करनेमें प्रमाद करेंगे तो उन्हें इतना भय नहीं है । जितना कि हमें है । इसलिए हमें अपने बढ़ते हुए विनाशका मूल कारण निर्भीकतासे निष्पक्ष होकर प्रकट करना चाहिए । जलवायु, शरीर-संगठन आदि बातोंमें जितनी सुविधा-असुविधा अन्य भारतीय प्रजाको है उतनी ही हमें भी है; अन्य जातियोंकी अपेक्षा हम विशेष गरीब भी नहीं हैं । तब फिर अन्य भारतीय जातियोंकी अपेक्षा हमारी संख्या ज्यादा प्रमाणमें कम हुई, इसका कारण क्या है ? मेरी ऐसी धारणा है कि हमारे वर्तमान सामाजिक व्यवहारोंमें ही इस रोगका मूल कारण है। रोटी बेटी व्यवहारमें हम बहुत संकुचित बुद्धिवाले हो गये हैं, इससे अयोग्य विवाहों और विधवाओं तथा विधुरोंकी संख्या बहुत बढ़ गई है । मृत्युसंख्यामें भी इससे वृद्धि होती जाती है । हजारों युवतियों और युवकोंकी उत्पादक शक्ति इसलिए कुछ काम नहीं करती कि उन्हें विवश होकर अविवाहित रहना पड़ता है। इस तरह हमारी रूढियोंने मृत्यु संख्या प्रमाणमें वृद्धि कर जन्मकी संभवताको कम की है; और अन्यों को अपने में शामिल कर संख्या बढानेकी बुद्धिमत्ताको तो हमने गिरवी ही रख दिया है । अन्य धर्मावलंबियोंको शामिल करनेकी बात तो दूर रही,परन्तु जैनधर्म पालनेवाले लोगोंके साथ भी, प्रान्तभेद, जातिभेद और धर्मभेदके कारण हम विवाहसम्बन्ध नहीं करते हैं । विशेष क्या कहुँ, एकही धर्म और एकही जातिके होते हुए भी हमें एक साथमें बैठकर खानेसे पतित हो जानेका भय रहता है । आप लोग कहते हैं कि हमारा सुधार हुआ है, हम बुद्धिमान हुए हैं; परंतु मुझे तो डर है कि कहीं सुधरनेके बजाय हम बिगड़ते तो नहीं जा रहे हैं ! हमारे विद्वान महात्मा श्री आत्माराम जी महाराजने लिखा है कि, “ अपने पूर्वज हिन्दु ओंके बनाये हुए जातिभेद की परवाह नहीं करते थे; वे धर्मके आधारपर ही समाज रचते थे और संख्याबल और ऐक्यवर की वृद्धि करते थे; श्री महावीर प्रभुके ७० वर्ष बाद अपने महान गुरु श्रीरत्नप्रभसारिने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और सुतार आदिके १८००० अट्ठारह हजार घरोंको जैन बनाकर उनमें परस्सर रोटी बेटीका व्यवहार जारी किया था और इस तरहसे जैनसमाजकी रचना की थी। इसी
SR No.536514
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1918 Book 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1918
Total Pages186
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size18 MB
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