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૧૧ મી જૈન ભવેતાંબર પરિષદ, साहस भी इसी तरहसे देशके लिए उपकारी होगा। अब प्रत्येक जातिको चाहिए कि वह अपनी संतानको आवश्यकतानुसार अंग्रेजी सिखाकर कारखानोंमें काम सीखनेके लिए भेजे, अथवा व्यापारमें होशियार बनावे । ऐसा करनेके लिए हरेक कोमको लाखों रुपये खर्च करने के लिए तत्पर होना चाहिए । पश्चिम देशके जडवादका असर हमारे नव युवक शिक्षितोंपर होता जा रहा है, वे जैनधर्म और जातिसे प्रायः लापरवाह होते जा रहे हैं और मुझे भय है कि यदि हम उनको सहायता देने और धर्मका वास्तविक रहस्य समझानेके लिए प्रयत्न नहीं करेंगे तो वे हमसे सर्वथा भिन्न हो जायँगे । उनको हमारे धर्म या समाजके प्रति उसी समय प्रेम, आदर और ममत्व होगा, जब कि हम उन्हें अज्ञान और दारिद्य दशासे निकालनेको लिए अपना हाथ बढ़ायगे और अपने कृत्योंद्वारा उन्हें विश्वास दिला देंगे कि हम प्रत्येक स्थितिमें तुम्हारी सहायता करनेके लिए तैयार हैं। यदि हम अपनी तांनमें मस्त रहकर उनको भूल जायँगे तो स्वभावतः वे भी हमें भूल जायँगे । शिक्षित लोग धार्मिक या सामाजिक कार्योंसे अलग रहते हैं इसका दोष श्रीमंतोंके सिर ही लगाया जा सकता है; क्योंकि उन्होंने अपनी जातिक गरीब परन्तु विद्यारसिक युवकोंको प्रेमपूर्वक अपने पास बुलाकर, उनका विद्याप्राप्तिका मार्ग सरल नहीं बनाया और उन्हें भीख मांगकर, कष्ट उठाकर, काम चलाने के लिए विवश किया । क्या जैन व्यापारी, वकील, डाक्टर और बड़ी बड़ी तनख्वाह पानेवाले नौकर लोग एक एक दो दो जैन विद्यार्थियोंका पालन नहीं कर सकते ? और यदि ऐसा हो सके तो प्रतिवर्ष एक हजार विद्यार्थियोंको उच्च शिक्षा दिया जाना क्या कोई कठिन कार्य है ? इस समय मुझे 'जैन विद्योत्तेजक फंड' के जन्मदाता एक मुनिजीके चित्तकी उदारता याद आती है, और साथ ही इस बातका स्मरण आते ही कि झगडे और लापरवाहीने उसे बाल्यकालमें ही नष्ट कर दिया, दुःख भी होता है । सौभाग्यवश दुसरा एक ऐसा ही प्रयत्न बहुत बढे पाथे पर इस समय भी प्रारंभ हुआ है; और उससे बहुत कुछ आशा की जाती है । एक कहावत है कि 'छोटे ग्राससे बहुत खाया जाता है । इसके अनुसार यदि प्रत्येक सशक्त जैन उक्त प्रयत्नमें स्कालशिपकी सहायता दे, तो प्रत्येक प्रान्तक और प्रत्येक फिरकेके जैन विद्यार्थीके विद्याभ्यासका मार्ग बहुत ही सरल हो जाय।