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________________ ४२ ૧૧ મી જૈન શ્વેતાંબર પરિષદ ऐसे कार्यकर्ता ज्यादा नहीं केवल आधा डजन ही यदि हमें मिल जायेंगे तो मुझे विश्वास है कि सिर्फ दस बरसके अंदर ही हम जैनजगतको उन्नतिकी सर्वोत्कृष्ट चोटीपर बैठा हुआ देख सकेंगे । क्योंकि सौभाग्यवश धनकी हमारे यहाँ कमी नहीं; दया भी अन्य जातियोंकी अपेक्षा हमारी जातिमें विशेष है; सामान्य बुद्धिमें भी हम किसी जातिसे कम नहीं हैं। हमारे अंदर सिर्फ एसे स्वयंसेवकोंकी कमी हैं, जो प्रत्येकके विश्वासपात्र बनकर प्रत्येककी शक्तिका केंद्रस्थान 'कान्फरंस' को बतानेका पद्धत्तिके अनुसार परिश्रम कर सकें और हजारों बिखरं हुए मोतियोंको पिरोकर हार बनाने के लिए अपने आपको धागा बना सके। कार्य कहाँसे प्रारंभ होना चाहिये ? ____ बंधुओ, जब हम बातें करने बैठते हैं तब एक भी उपयोगी बात नहीं छोड़ते । बालविवाह, वृद्धविवाह, कन्याविक्रय, अनमेल विवाह, फिजूल खर्ची, वैश्यानृत्य, इत्यादि २ हानिकारक रीतियोंके विषयमें हम प्रत्येक संमेलनमें और प्रत्येक मीटिंगमें चिल्लाते हैं; अथवा इस स्थितिको सुधारनेके लिए ईश्वरसे प्रार्थना करते हैं; परन्तु रोना चिल्लाना या प्रार्थना कर दूसरोंसे सहायताकी आशा रखना ये दोनों ही निर्बलताके चिन्ह हैं। वीरभक्तो ! यदि हम अपने ही दुःख काटनेमें समर्थ न होंगे तो फिर दूसरोंके दुःख कैसे काट सकेंगे? हमें अपना सौभाग्य समझना चाहिए कि कई त्रुटिया जो हमको बहुत ही बड़ी मालूम हो रही हैंबिलकुल ही साधारण हैं, और अल्प परिश्रममें ही हम उनको पूरा कर सकते हैं। केवल एकही प्रयाससे बुद्धि के विकास मात्रसे-अज्ञानजन्य सारी आपत्तियाँ स्वयमेव दूर हो सकती है। बुद्धिविकासके लिए विद्या-प्रचार ही एक राजपार्ग है मार हम सच्चे दिलसे कभी इस मार्गपर चलनेको तत्पर नहीं हुए। इस बीसवीं शताब्दिमें जब कि युरोप, अमेरिका आदि देश विमानोंके ऊपर चढ़कर आगे बढ़ रहे हैं और भारतकी भी कई जातियाँ घोड़ा गाड़ी में सवार होकर बड़ी तेजीके साथ आगे चली जा रही हैं, तब हम पुराने जमानेके खटारेमें ही पड़े हुए हैं, और खटारेमें पड़कर भी इतने बेसुध हैं कि खटारा आगे बढ़ रहा है या पीछे हट रहा है इसकी हमें कुछ भी खबर नहीं है । जब हमारे हजार भाइयोंमेंसे केवल ४९५ ही लिख पढ़ सकते हैं और अंग्रेजी शिक्षा तो प्रति सहस्र २० ही पाते हैं तव ब्रह्मसमाजी मनुष्यों में प्रति सहस्र ७३९ लिख पढ़ सकते हैं और ५८२ अंग्रेजी जानते हैं। सबसे पहिले इस तिरस्कार करने योग्य अज्ञानदशाको दूर करनेके
SR No.536514
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1918 Book 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1918
Total Pages186
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size18 MB
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