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________________ एन् . जैन कॉन्फरन्स हरल्ड. रहेंगे और जहां तक विषय रुपी दैत्यका जोर बना रहेगा, वहां तक सुखमय नगरी रुपी मोक्ष के दरवाजे में तुझे हर्गिज नहीं जाने देगा तो तुं विषयरुपी वैरी के क्षणिकसुख देखकर तरुणी के तरंग में क्षण मात्र इंद्रिय सुख से तृप्ति पा कर चपल परिणामी नि:धर्मी क्यों होता है ? यह सर्व नरक में लेजाने वाले हैं. अखीर में भाई बहेन बेटी पुत्र मित्र स्त्री माबाप कुटुंब परिवार धन योवन वैभव आदि जो तृष्णा और विषयके बीज हैं, वे सब यहीं रहने वाले हैं. और आत्मा तो सिर्फ पुन्य व पाप को साथ लेकर सिधायगा, आया है सो जायगा। पाठक राजा रंक फकीर ॥ . कीई जायगा पालखी। कोई बंधे जंजीर ॥ ३ ॥ हे सुखेच्छक । अब तुझे जिस तरह जाना मंजूर हो वैसा विचार कर पालखी भी मिल सक्ती है और जंजीर भी तैयार रहता है, इसपर एक द्रष्टांत है कि:कुवा. व. वावडी में पानी की आवश्यकता होनेपर खनन कराया जाता है. और खनन से पानी की सीर निकलने पर आत्मा तप्त होता है. इसी तरह मनुष्य देह रूपी कुवा वावड़ी में खनन रूपी उद्यम कर धर्म रूपी जल (अमृत) प्रगटाया जावे तो जैसे जलसे तृप्ति हुई इसी तरह मोक्ष रूपी सिद्धि जो तृषा व्याप्त है वह तृषा धर्मरूपी जलसे शांत होगी. इसी तरह किसी नगरका राजा सुख मय शयामें आनंद पूर्वक सो रहा हो और उस समय विषयांध होनेसे याचक लोगोंके गीत श्रवण करता हे मगर उसका सारांश समझता नहीं, जैसे वेश्याका मायन श्रवण करने वाला मनुष्य ( कितनेक ) मतलब समझे विना " आहा हा ? क्या उमदा है ? वाह वाह !!" कहने मे रह जाता है। इसी तरह देहरूपी नगर में आत्म तुल्य राजा विषय में मदान्ध होकर याचक रूपी लेखक का गीत (लेख) श्रवण न करे तो फिर हाथ गृहे हुबे रत्नांचंतामणी को मुफ्त में खोता है. वास्ते हे शुध्धात्मा ! जो तुझे संपूर्ण सुखभोक्ता होना हय तो धर्म साधन करनेमें मत चुकना. कदापि धर्मकार्य में अनिवार्य विघ्न भी प्राप्त हो जाय तो "श्रेयासोबहु विघ्नानि" यह सूत्र स्मरण रखके विघ्नोंकी परवाह न करके धैर्य रखकर धर्म :साध्य किये जाना उत्तम है. जैसे व्यवहार में एक गांवसे दूसरे गांव जाने को भयंकर वन के डर से व तस्कर लुटेरों के भयसे, सामंत योध्धा व हथियारादि का उपयोग करके जंगलसे पार होना पडता है, इसी तरह मोक्ष रूपी नगर जाने को भयंकर अटवी रूपी विघ्न आते हैं. उनकी क्षमा रुपी हथियार से धर्मरूपी सिपाहियों को साथ लेकर हृदयके धैर्य से मोक्ष नगरीमें जाओ. और भय मत गीनो और हमेशा धर्म करनेमें उद्यम वंत रहा करो. हे प्रियात्मा। आप जानते होंगे कि अपने पूर्वजों धर्म कार्य आते तो
SR No.536509
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1913 Book 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1913
Total Pages420
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size12 MB
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