________________
धर्म.
लेखकः - चंदन मल नागोरी, छोटी सादड़ी (मेवाड )
प्रिय पाठक ! धर्मकी शोभा अधिकाधिक है. इस गहन विषय को ध्यान रख कर स्थिर चित्त रख कर ज्यौं ज्यौ विचार श्रेणी बढाइ जाय त्यौं यों आत्मा का हित होता जाता है.
धर्म साधन मोक्ष में लेजानेकोदूत रूप है और जो परलोक हितार्थे धर्म साधन से उद्वेग याता है वह मानो अपने अक्षय सुख को क्षीण करता है। जो किसी भव्यात्माको शुद्ध निर्मल धर्म संबंधी तत्व जानने कि जिज्ञासा होतो प्रथम हठ, कद गृह, कुटिलता आदि शत्रुओं का त्याग कर विकथा को छोड धर्मोपार्जनार्थे आध्यात्मिक कथाओंमें प्रवृत्त रहे, कि जिस से परलोक संबंधी भी कुछ हित हो. हे मोक्षार्थी प्राणी धर्म साधने के लिये तेरी वृत्ति ऐसी शुद्ध और शांत रखना कि जैसे सोनेको जिस तरह नमाया जाय उसी तरह नम्र होता जाता है, इसी मुवाफिक कोई सत्पुरुष हित शिक्षा के वचन कहे तो उसके साथ ऐसी सरलता और मृदुता रखना कि शिक्षा दाता का मन तेरी तरफ रजामंद रहे. इसके लिये खूब याद रक्खोकि " विनय धर्मस्य मूलं " विवेक धर्मका मूल है, वास्ते गुणवंत प्राणीका विनय, वैयावच्च करने से विमुख रहोगे - तो धर्म मूल ( विनय ) प्रायः नष्ट हो जायगा -इसके लिये कहा है कि :गुणवंत सेती वंदना, अवगुण देख मध्यस्थः
दुखी देख करुणा करो, मैत्री भाव समस्त ॥ १ ॥
इस अनुपम दोहेका तात्पर्य हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कदापि शीक्षादातासे श्रवण करने वाला अधिक गुणवंत हो तोभी अपने को अल्पगुणी समज कर अहंकार से अटकना और मान को चतुर्गती संसारको दुःखकी खान समजना. कहा है कि
जन्म दुःखं जरा दुःखं, रोगाणि मरणाणिय |
अहो दुखो हुं संसारे, जथ्थ य किं संति जंतुणो ॥ २ ॥
इस जन्म जरा रुप संसार में जन्म लेते दुःख, मरणाधीन होते दुःख, रोग आवे दुःख, धन प्राप्ति में दुःख, व्यय करते दुःख, स्त्री पुत्र सगा संबंधी कुटंब परिवारादि में दुःख, और थोडे में कहें तो सुख मात्र तो संत पुरुषों में निवास कर बेठा है. है सुज्ञ ! तुझे शास्वता सुखकी लालसा हो तो शुद्ध धर्म को अंगीकार कर और जन्म जरा मृत्यु रूपी दावा नलसे पृथक रहकर साध्य बिंदुका साफल्य प्रात्प कर. बिना धर्मप्राप्तिके विषय सुख जो किंपाक के फल मुवाकिक हैं वह तुजसे तटस्थ नहीं