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ઉક્ત માગધી લેખક હિંદી ભાષાંતર. नुकूल होती है ? " इस प्रश्नके करने पर भगवन् वर्द्धमान स्वामी प्रत्युत्तर प्रदान करते है कि " हे गौतम देवते अर्द्धमागधी भाषा भाषण करते हैं और उक्त ही भाषा भाषण की हुई उनको प्रिय लगती है."
___ और भी अर्द्धमागधी भाषा सर्व शक्तियों करके सम्पन्न है; यथा “ समवायांग सूत्र "के चउतीर्थ स्थानमें ऐसा उल्लेख है कि अर्द्धमागधी भाषामें भगवान् धर्मोपदेश प्रतिपाइन करते हैं और वो ही उच्चारण की हुई सर्व आर्यो-अनायों-द्विपदों, चतुष्पदों भूगों, पशुओं, पक्षिओं, सो इत्यादियोंको आत्महित. कारी तथा कल्याणकारी सुखोपाय उनकी स्वस्वभाषाओंमें परणमति है अर्थात् सवे अपनी २ भाषामें समझ जाते.
यह सूत्र स्पष्ट करता है कि अर्द्धमागधी भाषामें परम शक्ति है. हमारे अरिहंत देवने द्वादशाङ्ग तथा नित्य कर्म पूर्वोक्त भाषामें ही वर्णन किये हैं. तथा सवे आये पुरुषोकी आर्य भाषा प्रागुक्त ही हैं.
इसके प्रमाणार्थे " पृण्णवन्नासत्र"का प्रथम पद अध्ययन करना उचित है.
पाश्चात्य तथा विदेशी विद्वान व अन्य ग्रन्थकर्ता भी अर्द्धगधी भाषाकी भूयसी प्रशंसा करते हैं और इसे सर्वोत्तम बताते हैं. ऐतिहासिक ग्रन्थ ऐसे भी लिखते हैं कि सर्व भाषाओंसे प्राचीन तथा प्रथम अर्धमागधी (प्राकृत) ही है ।
सो ऐसी ही आशा पाणिनि मुनिके लेखसे* सिद्ध होती है.
सो हे देववल्लभा : तिस भाषाकी वृद्धयर्थे अनेक प्रकार के उद्यम व परिश्रम करने योग्य हैं जैसे कि अर्द्धमागधी अध्ययनशाला तथा अर्द्धमागधी समाचारपत्र, अर्द्धमागधी नामाकितमुद्रा, इत्यादि, और साधु-साध्वियोंको भी योग्य है कि सर्व प्रकारसे वार्तालाप अर्द्धमागधी भाषामें ही करें क्यों कि यदि अर्द्धमागधी भाषाकी वृद्धि होगी तो श्रुतज्ञानका भी महोदय होगा; और श्रुतज्ञान हमारा परम कोश है.
पुनः हमारा नित्यकर्म भी उक्त भाषामें ही है. फिर उक्त भाषा पलिङ्गा, विभक्ति, अर्थ, समासः सन्धि, पद, हेतु. जोगोणादि क्रिया, विधाण, धातु, तद्धित, निरुक्तिनाम इन करके संस्कृत है. पुनः व्याकरण भी अर्द्धमागधी भाषामें विद्यमान हैं; फिर इसका प्रचार ना किया जाये यह शोककी बात नहीं है ? अर्थात् इसका प्रचार अवश्यमव करना चाहिय.
* विषधि: चाि वर्ण : शम्भुमते मता:। " प्राकृते संस्कृते चापि, स्वयंप्रोक्ताः स्वयंभुवा