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જૈન કૅન્ફરન્સ હૅલ્ડિ. .. मित्रवरो ! इस परम प्रिय भाषा तथा विद्याके प्रचारसे जिन मतका भी शीघ्र ही परमोद्योत होवेगा. देखिये सूत्रों ( जैनशास्त्रों ) में सर्व प्रकारकी विद्यायें विद्यमान हैं, अपितु अनभिज्ञ पुरुष कुमतिके प्रयोगसे तथा हठधर्मसे इनमें (शास्त्रोंमें) अश्रद्धा करते हैं किन्तु जो सूत्रोंमें कथन किया गया है वह अवश्यमेव ही समयान्तरमें अपनी सत्यता प्रगट करदेता है. उदाहरण देखिये. जैनशास्त्रोंमें भाषाके पुद्गल कहे हैं अथोत् जो हम भाषण करते हैं उसके पुद्गल है ऐसा कथन किया गया है। परन्तु बहुतसे अज्ञान जन इस पर निष्ठा नहीं करतेथे तथापि अर्हन् कथनमें लवलेश मात्र भी न्यूनाधिकता नहीं है. देखिये इस जमानेमें " फोनुग्राफ" वादित्रको, जो कि सम्यक् प्रकारसे गीत गाता है. यदि भाषाके पुद्गल ना होते तो भला कैसे उक्त वादित्र निरोध हो कर गायन श्रवण होता ? इससे निश्चित होता है कि भाषाके पुद्गल अवश्यमेव ही है. ऐसे ही धूम्रजाणेत्यादिकोंको भी ज्ञात करना चाहिये.
जबकि सूत्रोंमें सर्व विद्यायें विद्यमान हैं तथा अर्द्धमागधी भाषा सर्वोपकारी तथा सर्वोतम है ऐसा निश्चय हो गया, पुनः हम विचार करना चाहिये कि इसकी वृद्धि किस प्रकारसे हो सकती है ? तो अवश्यमेव ही कहना पडेगा कि प्रेम भावसे अर्थात् परस्पर एकत्व वा सम्प होनेसे..
___ अथ प्रेमभाव विषय. प्रिय सज्जन जनों ! प्रेमभावसे सर्व कार्य सिद्ध होते हैं. प्रेमभावसे मन प्रसन्न होता है. प्रेमभावसे प्रशस्त ध्यान होता है. और विद्या तथा मतोन्नति प्रेमभाव पर निर्भर है. जैसे जल सिञ्चनेसे वृक्षकी वृद्धि होती है तैसे ही प्रेमभावसे धमोन्नति होती है. देखिये, प्रेमभाव (एकताके प्रभावसे अन्यमतावलम्बी कैसी वृद्धिको प्राप्त कर रहे हैं.) तथा प्रेमभावसे द्वेषका नाश होता है और आत्मा परम पवित्र ( शुद्ध ) होता है. अपितु ऐसा कौनसा कार्य है जो कि प्रेमभावसे सिद्ध नहीं हो सकता अर्थात् सर्वकार्य सिद्ध होते हैं. तथा जिन शासनका तो मुख्य विनय धर्म वा प्रेम धर्म ही है. " विवाह प्रज्ञप्ति" के सत्रको स्मति कीजिये कि ( अहिमिंज्जिपेमाणुरागरत्ते ) अर्थात् अस्थिर मिञ्जिर प्रेमानुराग करके रक्त. देखिये सूत्र किस प्रकारसे प्रेम भावके लक्षण वर्णन करते हैं.
सुज्ञ जनों ! जब हम पूर्व समयको स्मृति करते हैं तब आत्मा परम दुःखी होता है. हा ! वह समय कहां गया ? जिस समय सर्व भृमी पर जैन धर्मका विस्तार था, और स्याद्वादका नाद होता था, प्रायः सर्व जीव जिनेन्द्र देव भगवान्के