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________________ જૈન કોન્ફરન્સ હેર. । इन सब बातोंका कारण ढूंढनेको दूर नहीं जाना है. इस अयोग्य वीर्य'नाशको रोकने के उपाय क्यों नहीं किये जाते हैं ? मा बापका दोष है या बालकोंका यह विचार करने योग्य प्रश्न है. मेरे विचारमें तो लोकलाज, वेहुदा शरम, और इस विषयके ज्ञानका न होना ही इस अनर्थके कारण हैं. “ बच्चोंको हम ऐसी बात कैसे करें ? होती हूई रीति क्यों कर तोडी जाय ? ऐसी बातका कहना तो अश्लील है ! ऐसी बात करनेसे निर्लज कहे न जायगे ? " ये विचार ही खराबी पैदा कर रहे हैं. विवाह होनेके थोडे ही दिन बाद बेटे और बहुको एक स्थल सुलाते हूए तो माबाप आदिको लज्जा नहीं आती ( बल्कि अपना चातुर्य समजते हैं ) और अपने बेटेकी शारीरिक सम्पत्तिका नाश न होकर रोग न बढे इसके बारेमें उपदेश देते हुए लज्जा आती है ! पश्चिमके देशमें तो ऐसी २ शालायें हैं जहां इन विषयोंपर व्याख्यान दिये जाते हैं. शरीरकी रचना सम्बन्धी व्यावहारिक ज्ञान दिया जाता है.. परन्तु अफसोसकी बात है भारतमें इस समय बेहदा शरम-हानिकारक लोकलज्जाने घर घाला है. साथ ही यह भी कहना पडेगा कि 'शारीरिक तत्ववेत्ता' भी अब बहुत कम हैं. सामान्य लोकमत कैसा ही क्यों न हो परन्तु यह वात विचार कर काममें लाने योग्य अवश्य है. ऐसे २ पुस्तक और इस विषयका ज्ञान जितना बढे उतना ही अच्छा. ' नैतिक हिम्मत 'की हम लोगों में बडी कमी है, स्वतंत्र विचार प्रकट करनेवाले कहां मिलते हैं? जबतक गडरिया प्रवाहको न छोड़ेंगे और "बापके खारे कुवेका पानी पीने " के विचारका त्याग कर जिस मार्गसे उन्नति हो उस मार्गको ग्रहण न करेंगे, तबतक उदयकी आशाके चिन्ह बहुत दूर हैं. ब्रह्मचर्य कैसे अच्छी तरह पालन हो सक्ता है ? किस मार्ग पर चलनेसे वीर्यकी रक्षा हो सकेगी? वीर्यनाशका शरीरसम्पत्तिके नाशके साथ क्या सम्बन्ध है? ऐसे २ विषयोंका भिन्न २ करके प्रतिपादन करने वाले पुस्तकोंका खूब फैलाव होना चाहिए. सद्ज्ञानके फैलनेसे अवनतिके कारण दूर होंगे और प्रजाका शरीरबल व बुद्धिवल वढेगा. जीनका शारीरिक बल और आत्मिक बल उच्च प्रकारका होगा वे भारी भारी संकट आने पर भी, अनेक विनोंके आने पर भी, उस पर विजय पायेंगे. संकटोंपर जय पानेसे उनके बलमें और भी वृद्धि होगी, और आगे चल कर वे और भी कठिन मार्गपर चल सकेंगे और अन्तमें अपने साध्यकी सिद्धि कर सकेंगे. V. M. S.
SR No.536509
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1913 Book 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1913
Total Pages420
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size12 MB
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