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जो कुटेव ही जान पडे तो उसके महा दुःखदायक परिणाम पर विचार कर फोरन बच्चेको कुटेवसे छुडानेकी तरकीब करना चाहिए. अफसोस ! अफसोस ! बेहूदा शरम इस बारेमें सत्यानाश करती है और भविष्यत कबतक हानि करती रहेगी यह कहा नहीं जा सकता है. 'ऐसी बात ही कैसे की जय?' ऐसे हानिकारक विचारको छोड देना चाहिये और अज्ञानवश शरीरसम्पत्तिके नाशक कुएमें पडे हुए बच्चोंका उद्धार करना चाहिये यह बडोंकी फर्ज है.
वीर्यस्राव द्वारा शरीरसम्पत्तिके नष्ट होनेका इस समय एक और भी कारण उत्पन्न हो गया है और वह भी प्रबल कारण है. वह यह है कि घृणित उपन्यास, और शृंगारसे लबालब भरे हुए नाटकोंका देखना-पढना आदि ये सब काम वासनाको उत्तेजित करते हैं और मनुष्य के हृदयमें कामका राज्य स्थापन कर देते हैं. उस समय मनुष्यका मन आधीन नहीं रहता. इन्द्रियें मनको अपने २ विषयकी
ओर ले जाती हैं. कामदेवके आधीन हुए मनुष्यका वीर्य रुक नहीं सकता, चाहे फिर वह किसी भी तरह नीकले. - कितनेही न्यायी और विचारशील मनुष्य यद्यपि पर स्त्रीको मा, बहन, बेटीकी दृष्टिसे ही देखते हैं, ऐसा होने पर भी उनमेंसे कई एक स्वस्त्रीमें इतने लोलुप रहते हैं कि वीर्यकी होती हुई अपार हानिका वे विचार भी नहीं करते. केवल व्यभिचारसे ही वीर्यका नाश नहीं होता है; वीयका नाश होता है हद पार विषयासक्तिसे.
कितनेही वचोंके बलका नाश बालविवाहसें हो जाता है. जो समय वीर्यके पकनेका होता है उसी समय कीर्यका अयोग्य व्यय कर दिया जाता है. इसका परिणाम यह होता है कि वे जवानीमें ही बुढ़े हो जाते हैं, आंखाका तेज घट जाता है, मुंह पीला पड़ जाता है, शरीरकी कान्ति नहीं रहती, शरीरके धातुओंके राजाके नाश होनेसे जठराग्नि मंद पड जाती है. खाया पिया नहीं पचता, खून साफ नहीं बनता और न नवीन वीर्य पेदा होता है. इस भांति अनर्थपरंपरा होती जाती है. वीयको मस्तिष्कके साथ बडा सम्बन्ध हे. वीर्य नष्ट होनेसे ज्ञानतंतु भी निबल हो जाते हैं. इससे बालविवाहके भेट चढे हुए बच्चे विद्याभ्यास भी अच्छी तरह नहीं कर सकते, विद्या और स्त्रीका दुना बोझा पडनेसे वे बिलकुल अशक्त हो जाते हैं. ऐसी स्थितिमें पढते रहनेसे वे न कोमका भला कर सकते हैं और न अपना. उनका जन्म ही शारीरिक दुःखमय स्थितिमें व्यतीत होता है. आत्मश्रेय करनेके उनके विचार हृदयके हृदयमें ही रहे जाते हैं; क्यों कि उन उन विचारोंको काममें लानेकी शक्ति उनमें रहती ही नहीं है,