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જૈન કેન્ફરન્સ હે. जावे और पुष्टिप्रद सादा खुराक खानेमें आवे तो वृद्ध होने तक मनुष्यका शरीर दृढ और बलवान रहेगा इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है. जो भोजन हम करते हैं उसे जठराग्नि पचाती है और उसका रक्त बन जाता है. उस खनका वीर्य बनता है. वीर्यसे जठराग्नि प्रज्वलित होती है. इस भांति वीर्य और जठराग्निका परस्पर व्यवहार है, वे एक दूसरेके सहायक हैं. परन्तु इनमेंसे एकमें भी विकार -अव्यवस्था होनेसे सब शरीरकी रचनामें फरक पड जाता है.
प्राचीन समयमें जबतक विद्याथीं पढतेथे तबतक अखंड ब्रह्मचर्य पालन करते थे. इसीसे वे बद्धवीर्य और उर्वरेता कहे जाते थे. वीर्यके बंधनसे और उसका कुमार्गमें व्यय न होनेसे वह जठराग्निको प्रदीप्त कर शरीरके सव भागोंको बल देता था. इसीसे प्राचीन पुरुषांके शरीरकी स्थिति बहुत अच्छी थी, और इसीसे, जिस शक्तिसे दिनरात विद्यार्थियोंको काम पडता है वह मेधाशक्ति तीत्र
और बलवाली रहतीथी. उनका अभ्यास अच्छा होताथा. उनकी स्मरण शक्ति ऐसी होतीथी कि जिसका हाल सून आश्चर्य होता है और कभी कभी तो हम उसके सत्य होनेमेंही शंका कर बैठते हैं. ऐसा होनेका कारण हमारी शारीरिक निर्बलता और उससे उत्पन्न हुई दिमागकी कमजोरी है.
प्रायः ऐसा भी होता है कि बालक कुसंगतिके प्रभावसे कुआचरणके फंदेमें पड़ जाते हैं. दूसरे बच्चोंके कुआचरण देखकर ये भी कुचेष्टाओंसे वीर्यपात करने लग जाते हैं. भविष्यमें इसका परिणाम भयंकर हानिकारक होगा, इसका इन्हे स्वप्नमें भी विचार नहीं होता. वे ऐसी २ क्रियाओंको एक प्रकारका खेल समजते हैं. परन्तु “ पडी टेव टाली हुई नहीं टलती" इस वाक्यके अनुकूल एक दफा पडी हुई आदत बराबर कायम रहती है. इस तरह बचपनमें ब्रह्मचर्यका भङ्ग होता है, वीर्यका सत्यानाश होता है.
अय निर्दोष अज्ञान वालकों ! तुम कैसे कुआचरणके फंदेमें पड गये हो कि खोटे मार्ग पर चल कर अपने शरीरके राजा वीर्यका किस तरह नाश करते हो इसका तुम्हें कुछ भी विचार नहीं है ! ऐसे दुर्गुणमें पड़े हुए बालक सचमुच दयापात्र हैं. मावाप और बडे बुढोंका इस विषयमें बडा गंभीर कर्तव्य है कि इस बातपर पूरा २ लक्ष दें कि उनके बालक कैसे साथियोंकी संगाते रहते हैं. याद कोई रोग आदिके कारण न होने पर भी बालक कमजोर होता जान पडे तो इस बातकी तलाशी करना चाहिये कि बच्चे कुटेव तो न पड़ गई हैं? तलाशी करनेपर