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________________ सम-सन्देश. 311 सद्धर्म-सन्देश. मन्दाकिनी दयाकी, जिसने यहां बहाई । हिंसा कठोरताकी, कीचडको धो बहाई ।। समता सुमित्रताका, ऐसा अमृत पिलाया। द्वेषादि रोग भागे, मदका पता न पाया ॥१॥ उस ही महान् प्रभुके, तुम हो सभी उपासक । उस वीर वीर जिनके, सद्धर्मके सुधारक । अतएव तुम भी वैसे, बननेका ध्यान रक्खो । आदर्श भी उसीका, आँखोंके आगे रक्खो ॥२॥ संकीर्णता हटाओ, दिलको बडा बनाओ। निज कार्यक्षेत्रकी अब, सीमाको कुछ बढाओ ॥ सवहीको अपना समझो, सबको सुखी बना दो। औरोंके हेतु अपने, प्रिय प्राण भी लगा दो ॥ ३ ॥ ऊंचा उदार पावन, सुखशान्तिपूर्ण प्यारा । यह धर्मक्ष सबका, निजका नहीं तुम्हारा ॥ रोको न तुम किसीको, छायामें बैठने दो। ____ कुल जाति कोई भी हो, संताप मैटने दो ॥ ४ ॥ जो चाहता हो अपना, कल्याण, मित्र ! करना । _____ जगदेकबन्धु जिनका, पूजन पवित्र करना ॥ दिल खोल करके करने दो, चाहे कोई भी हो । ___ फलतेहैं भाव सबके, कुल जाति कोई भी हो ॥ ५॥ सन्तुष्टि शान्ति सच्ची, होती है ऐसी जिससे । ऐहिक क्षुधा पिपासा, रहती है फिर न जिससे- ॥ वह है प्रसाद प्रभुका, पुस्तक-स्वरूप हसको । सुख चाहते सभी हैं, चखने दो चाहे जिसको ॥ ६॥ यूरुष अमेरिकादिक, सारे ही देशवाले । अधिकारि इसके सब हैं, मानव सफेद काले ।
SR No.536509
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1913 Book 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1913
Total Pages420
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size12 MB
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