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________________ १८७४ प्रमुखका भाषण. उसमें लोगों की अधिक प्रवृत्ति हो । क्यों कि समय ऐसा आगया है कि प्रायः मनुष्याका विचार प्रथम जीविकाको ओर जता है पश्चात् परलोक सुधारनेका काम समजाता है । अतएव प्रत्यक स्थानमें ऐसी शिक्षाका प्रबंध होना उचित है कि वहां पर व्यवहारिक. बिद्याके साथही साथ धार्मिक शिक्षा दी जाय । देखिये हमारी जातिमें तो अन्य जाति तथ अन्य सम्प्रदायक अपना अंग्रेजी विद्याकी का उन्नाते हुई है सो प्रायः आप सज्जनास अविदित नहीं है । यद्यपि इस पञ्चन काल में प्रधान विषय सांसारिक व्यवहार और संसारकी उन्नति ही लोग समज रहे है हमारे जैन भातृगणोका चित्त उधरमी उचित गति से आकर्षित नही ह । हमारी दशा नो वह हो रही है कि " इतो भष्ट स्ततो भ्रष्टः " क्यों कि यदि अपने श्वेतांबर जैन जातिक उपर द्राष्टिपात करे तो बि.ए., म.ए, उगलियो पर गिनने लायक मिलेंगे । किसी कीसी प्रांतम तो यह दिखाई पड़ता है कि अभि अमुक मनुषा इस जातिमें बीए एम अथवा प्लीडर हवा है । ए.य इससेह मारी शोचनीय दशा नहीं कहनी चाहिये? हां, गुजरात तथा बंबई प्रांतके हमारे जैन बंधुओन कुछ कुच्छ जाग्रत होकर डाकटर, वकील, बरिष्टर आदिके पदवीसे अपनेको भूषित किया है । परन्तु उनकीभी दशा अभितक सन्तोषदायक नहीं है, किन्तु युक्त प्रांत, बिहार, बंगाल आदिके जैन भ्रातृगण तो अद्यावधेि कुंभकर्णकी निगाहीमें निमग्न हैं । इसी निद्रासे जाग्रत करानेके लिये आप सब महाशय यहां पर उपस्थित हुये हैं। जिम समय अज्ञानरूपि निद्राले हमारे भाई जाग्रत हो जायगे, उसी समय जितने व्यः वहार हानिकारक है वे आपसे आप नष्ट हो जायगे । क्या कि अज्ञान निद्रासे जाग्रत होना तब ही कहा जा सकता है जब मनुष्य ज्ञान दशाको प्राप्त करे । ज्ञानादि ऐसा साधन है कि उससे मनुष्य, मनुप्य शब्दसे कहला सक्ता है, नहीं वह पशुतुल्य है। इस ज्ञानको हमारे आचार्योंने पांच विभागमें विभक्त किया है, जैसे मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्याय तथा केवल । इसकी व्याख्याका अवसर नहीं है क्यों कि इस समय हम सब जातिय सुधार के लिये यहां पर एकत्रित हुये हैं। यहां पर दिक प्रदर्शन का यह नार्य है कि हमको सांसारिक सुधारक माथही अपना अख्य लक्ष शानको प्राप्ति की तरफ अवश्य देना चाहिये, और ऐसी प्राप्ति नहीं हो सकी है जब हमारे शास्त्रकी पुर्णरूपसे पठन पाठणको व्यवस्था स्थापितकी जाय । इसका विचार अवश्य इस समय कर्तव्य है । जिस कारणले जैन जातिका गौरव है वह केवल परमार्थिक तथा लौकिक ज्ञान साधनके अनेक प्रकारके धर्म ग्रन्थ ही हैं । जिसको पढना पढाना तो दुर, हम नाम तक विस्मृत होते जाते है । इस लिय हम सबका यह मुख्य कर्तव्य है कि उनकी पूर्णरुपसे रक्षा करें । हमारे धर्म ग्रंथ तथा अन्य विषयोंके बहुतसे ग्रंथ प्राकृत सं. स्कृतमें हैं । उनको पूर्णरूपसे प्रगट करने में हम सबको तन, मन तथा धनसे कटिबद्ध हो जाना चाहिये । इनकी रक्षाकी यही विधि है कि जहांतक हमको ग्रन्थ उपलब्धहीं उनको एकत्रित करके विद्वानसे शोघन कराकर प्रकाश करें । और कठिण संस्कृत तथा प्राकृतके ग्रंथो का विद्वानोले अनुवाद कराकर छपवावें । जहांतक हो उनकी स्वल्प गृल्य रखकर सबको खरीदनेका अवसर दें । जैन मतकी वृद्धी न होनेका यह एक मूख्य कारण है कि हमारे सिद्धांतके ग्रंथही लोगोंके हस्तगत नहीं है । देखिये युरोप तथा अमेरीकाकी प्रजा प्रायः समस्त इसाई है। वहांपर इसाई मत फैलानेकी उपरी
SR No.536503
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1907 Book 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1907
Total Pages428
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size12 MB
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