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________________ જૈન કોન્ફરન્સ હેરફડ. [युमा । ओर आकर्षण करनेका है कि हमारे आचार्योंने पारलौकिक विचार कहां तक किया है। आज कल एसे देश है जहांके अधिवासी चाहे सभ्य हो या न हो परन्तु अपनेको सभ्य बताते है । यदि युरोपके अनुसार सभ्यताका विचार किया जाय तो भालुस होता है कि जड पदार्थोंका ज्ञान जिस देशमें जितना फैला है अर्थात् जड विज्ञानको सहायतासे जिस देशमें जितनी शिल्य कलाकी उन्नति हुई है, वह देश उतनाही सभ्य समजा जाता है इसी ख्यालके अनुसार सभ्यताको एक तसवीर हमारे हाथ आई थी। उस तसवीरके पहले पत्रपर असभ्यताकी तसवीर खिची थी। एक नगा मनुष्य हाथमे लाठी लिये हिरणका पीछा कर रहा है ! जिधर नजर डालो केवल मैदानहीं देख एउता है, न तो मकान और न कोई दुसरे मनुष्यका निशान हैं । दुसरे में सिरसे पांवतक कपडा लपेटे हुये मनुष्य औरजोपडी को ललवीर खिंची थी । उनस सालुम होता था कि इन मनुष्योन एक साथ रहनेका उपकार समजा है। दो चारोंके हाथों में कुलहाडी, तलवार तथा वरछा है । खेती बारीके मामुली समान इधर उधर पडे हय है । तिसी तसवीरमे पके मकान और हथियारबंद वारी के चित्र देखनमें आयेः परन्त सवारी के सामान हाथी, घोडा, पालकी तथा रथके सिवाय और कुछ न थे । इस तसवीरगं पके मकानों की कतार तो थी, पर छोटी छोटी गालयां थीं। चौथी तसवीरमें रेल, विजलीकी रोशनी, बडे बडे पक्के मकान तथा चौडी सडक और भांति भांति के हथयारबंद मनुप्योका चित्र था । उस चारो चित्रक खींचनेवालने जडविज्ञानके अनुसार सभ्यताकी तसवीर खिंची थी; परन्त उसे मालुम नहीं कि सिवाय धर्म के चाहे जितनी उन्नति क्यों न करो, अंतमे मनुष्यभव सफलकर मोक्षरुप उतकृष्ट पदका अधिकारी नहीं हो सकता । आजकाल स्कूल कालेजमै विशेष करके केवल जड विज्ञानकी ही शिक्षा होती है; परन्त इस शिक्षासे आत्माकी असली उन्नति नहीं होता यद्यपि यही होता तो अमेरिका, जो जड विज्ञानमें इस समय सर्व उच्चस्थान अधिकार करता है, वहांके अधिवासी छुट्टीके दिन अमेरिका आदिम अधिवासी रेड इंडियनको बंदुक लेकर शिकार करने न जाया करते । गत चीन युद्धमैं जर्मन जेनरेलने वहां जानवाले सिपाही की सम्बोधन कर कहा था कि चीनम पहंचकर मर्द औरत या वच्चे जिसे सामने पाना उसको अपने बदुकका निशाना बनाना । अब सोचिये यह कैसो सभ्यत है। धर्महीकी कमी वेशीसे मनुष्य असल्य तथा सभ्य हो सकता है धर्मको शिक्षा ही इस दुनियासें प्रधान शिक्षा है। परन्तु प्रायः वर्तमान समयमै हम इस शिक्षासे एक प्रकार परान्मत्र हुवे है । अब इस अभावको दुर करणार्थ योग्य उद्यम करना उचित है । यद्यपि कहीं कहीं पाठशालाय स्थापित हुइहै ,-क जो हालत मोजदामें हमारी जात्योन्नतिके लिये नहीं की बराबर कही जा सकती है, तथापि ' अक्ररणात् मंद करणं वर ' इस न्यायके अनुसार कुछ ही हो रहा है । इसमेंही संतष्ठ होना उचित नही है परन्तु धर्म की सम्पुर्ण शिक्षा मिलने का प्रवन्ध करना । कुल जैन समाजका प्रथम कर्त्तव्य है ! धामिक शिक्षाके साथही संसारिक शिक्षा । धार्मिक शिक्षाके प्रबंधके साथही साथ यह विचार भो अवश्य रखना योग्य है कि अब यह समय नहीं है कि जिसमें केवल धार्मिक शिक्षा का समी आव और
SR No.536503
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1907 Book 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1907
Total Pages428
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size12 MB
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