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________________ १८०७] પરદેશી ખાંડમાં રહેલી ભ્રષ્ટતા [ २८८ सघळा मुनि महाराजोने अमारी प्रार्थना छे के तेमणे आपणा परम पवित्र दयामय धर्मना तथा श्रावकोना रक्षण अर्थे आ भ्रष्ट खांडनो थतो उपयोग सदाने माटे जैन समुदायमांथी बंध पाडवा भगीरथ प्रयत्न करवो. अमारी जाण मुजब घणा खरा ठेकाणेतो आ खांडनो वपराश बंध थयो छे पण केटलाक गामडाओमां अने जुज शहेरोमां आ खांड हजु पण वपराती कहेवाय छे, अने तेथी जीवदयाना आ महान् हानिकारक पदाथेने तजवा दरेक जैन भाई, बाई तथा बाळकने पण बाधा आपवी जोइए. बीडी सोपारीनी के एवाज बीजां व्यसननी बाधाओ आपवा तथा लेवा करतां आवी भ्रष्ट खांडनी बाधा आपवी तथा लेवी हजार दरजे उत्तम छे, केमके तेथी करीने जीवदयानी हानिना थोडेअंशे पण भागीदार थवाना अधम कामथी आपणे बची जईशं. अमे जणाववाने घणाज दीलगीर छीए के लोभनो थोभ माणसने होतो नथी अने तेने अनुसरीनेज आपणा जैन व्यापारीओ पण आवी भ्रष्ट खांडनो व्यापार करवाना काममांथी दुर रही शकता नधी. परंतु जीवहल्याना कामने अनुमोद, ए पण श्रावक धर्मनी द्रष्टिएतो पापकारीज छे. अने भवोभवना भ्रमणमां नाखनार छे. माटे थोडा लाभनीखातर भवमां भटकवानी भूल शुध्ध श्रावक माता पिताना उदरथी उत्पन्न थएलातो करेज नहीं. खरूं छे के लोभ आंधळो छ पण श्रावक जो धर्मनी मर्यादामां रही लोभवृत्ति राखतो होय तो तेनो लोभ बीजा मार्गे पण पुरो थायज केमके “ यतो, धर्म स्ततो जयः" धर्म छे त्यांज जय छे. अने जय ए सुकृत्यनुं फळ छे. माटे आवी भ्रष्ट खांडनो वपराश करी, अथवा धंधो करी जीवहत्याना कामने अनुमोदवाना पापी कामथी अमारा श्रावक बंधुओ हवेतो हाथ उठावी देशनी अन्य प्रजाओमां मोखरे आवी पोताना धर्मने, पोतानी जातने, अने पोताना धर्माचार्योने, दीपावशेज. छेवटे आ परदेशी खांडनो उपयोग जेम ओछो थशे तेम स्वदेशी शुध्ध खांडनो वपराश ववशे अने तेम थवाथी देशनी कोमनी तथा पोताना घरनी पण परिणामे जुज अंशे पण आर्थिक स्थितिमां तफावत पडशे. देशी खांड वापरवाथी देशमा शेरडीनी खेती वधशे, खेडुतोने ए नवो धंधो हाथ धरवानुं मन थशे तथा ते मार्गे व्यापारी कोमने पण रळी खावाना काममा मन परोववानुं साधन मळशे अने मोटामां मोटुं तो नजर आगळ तेनी बनावट थवाथी तेनी शुध्धतानी प्रतिति थशे अने कदाच तेमा शंका जणाशे तो तेमां सुधारो करवानुं सहेलं थई पडशे अने ए रस्ते देखादेखी बधाओ वळवाथी जेटली परदेशी खांड ओछी खपशे तेटली जीवहत्या ओछी थशे अने तेनुं पुण्य ए हत्या ओछी करावनाराओने हांसल थशे. आ सघळु उत्तरोत्तर समजवा
SR No.536503
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1907 Book 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1907
Total Pages428
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size12 MB
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