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________________ २६८] જેન કોન્ફરન્સ હેરલ્ડ. [माटोप लाग्युं छे एज आपणा परा पूर्वथी चाल्या आवता खोराकनी श्रेष्टता दर्शाववाने माटे बस छे. हवे परदेशी खांडमां बळदना लोहीनुं तथा हाडकानुं तत्व आवेलं होवाथी ते प्रथम दर्शनेज आहारमा भ्रष्टता थवानी सावीती आपे छे. मांसाहारीओ अथवा जेओ तेनी छोश वाळा नथी तेओ कदाच आवी भ्रष्ट खांड वापरे तो तेओना मनथी कांई हानि नहीं होय पण आपण जैनोना मनथी तो ए भ्रष्ट खांडनो खोराक मोमां मूकवो एज आपणी अवनतिनी निशानी सूचवे छे. अन्य जातिओ खोराकनी शुध्धता माने छे पण ते उपलक शुध्धताज मानवावाळी छे. आपणे खोराकना तत्वो, तेना परमाणुओं विगैरेनी शुध्धता मानवावाळा छीए. कारण के ते तत्व तथा परमाणुओ आपणा शरीरमां जई तेनु लोही थई आपणा शरीरने तेनी बनावटना तत्वोना गुणवाळा बनावे छे, जेथी आपणे के जे माताना उदग्मांथी निर्दोष खोराक खाता आव्या छीए तेओना शरीरमां विकार उत्पन्न करी बुधिमां विकार उत्पन्न करे छे अने शरीरनी हानि थतां धर्मनी पण साधना थई शकती नथी. आ रीते शारीरिक हानि आवी परदेशी खांड वापरवाथी थई शकवानो दरेक संभव छे. हवे धार्मिक हानि केवी रीते थाय छे ते जोईजे. जैनो पीछावाळी टोपीओ, कचकडानी विंटीयो, हाथीदांतना चुडा, पडसुलीनो लोट अने चामडाना पुंठा जे कारणोने लीधे वापरवानी मनाई करवा लाग्या छे तेज कारण आ परदेशी खांड नहीं वापरवाना मार्गमां बीजे नंबरे आवे छे. पहेलु अने श्रेष्ट कारण तो अमे उपर शारीरिक हानिना संबंधमां जणाव्युं छे तेज धार्मिक हानिने पण आबाध लागु पडे छे. आपणे आहार लेवाना काममा प्रथम विचार जीवदयानोज करीए छीए अने जे आहारमां जीव तत्व भेळाएल होय छे तेतो आपणा मनथी विष्टा समान छे. कारण के जे दयामय धर्म पथ्थर, पाणी, झाड अने वनस्पतिमां जीव जुओ छे तेज धर्मना अनुयायिओ बळदना लोही माटे बळदनी थती हत्याने पोताना खोराक माटे जाण्या छतां थवा देवाना काममा साधन भूत केमज थाय ? अने जो थाय तो ते धर्मश्नष्ट कहेवाय के नही ? ए कांई. गुंचवाडा भरेलो सवाल नथी. आटलं जाण्या छतां हजु पण आवी नष्ट परदेशी खांडनो उपयोग जो जैन मंडळमां थतो होय तो ते माटे तेनो उपयोग करनार जैनोने शरमावानुं छे. बीजा हिंदुओ आ बाबतमां गमे तेम वर्ते तेनी नकल न करतां जैनोएतो आ भ्रष्ट खांडनो वपराश सदाने माटे बंध करवो लाजम छे. आपणामां जमणवारो पुष्कळ थाय छे अने खांड पण वपराय छे माटे जो कोई पण जैन मंडळमां आ परदेशी खांड हजु पण वपराती होय तो तेओए तेने एकदम बंध करी शारीरिक तथा धार्मिक भ्रष्टता अने हानि थती सत्वर अटकाववी योग्य छे.
SR No.536503
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1907 Book 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1907
Total Pages428
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size12 MB
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