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જૈન યુગ
સપ્ટેમ્બર ૧૯૫૦
आचार्य श्री ने प्रासुक जल मँगवा कर उस जल को मंत्रित कर महारानी को दिया और आचार्य महाराज श्री ने रानी को कहा कि यह प्रासुक जल राजा के शरीर को लगाने से राजा का कष्ट दूर हो जायगा। इसी तरह से राजा अनंतसिंह का रोग दूर हो गया और शरीर में शांति आ गई। फिर राजा रानी अपने परिवार सहित आचार्य श्री को वंदन करने आये।
राजा रानी ने वंदन करके आचार्य देव को विनंती के साथ कहा कि आजसे हम अपने परिवार के साथ जैन धर्म स्वीकार करते हैं । साथ में समिकत मूल श्रावक के बारह व्रत गुरु महाराज से अंगीकार किए। फिर गुरु महाराज के उपदेश से हथुडी श्री संघ ने अनंतसिंह को
ओसवाल जाति में मिला दिया। इस राजा के वंशज हथुडी या गठोड गोत्र नाम के ओसवाल जैनों के नाम से आज कई नगरियों में विचरते हुए हैं।
अनंतसिंह राजा ने गुरु महाराज के उपदेश से इस हस्तीकुण्डी नगर में श्री महावीर प्रभु का एक मनोहर जिन प्रासाद करवाया। अनंतसिंह राजा के अति आग्रह से
जयसिंह सूरिजी महाराज का चतुर्मास सं. १२०८ में इसी हथुन्डी नगरी में हुआ।
इस भारत भूमि के प्राणीमात्र के कल्याण के लिए जैनाचार्य ने अनेक कार्य किए हैं। पूर्व इतिहास गच्छपट्टावली आदि पढ़नेसे वह सब ज्ञात होता है। इस प्राचीन हथुन्डी तीर्थ के भव्य मंदिरजी में ५८ इंच की रक्त वर्ण की बड़ी प्रभावशाली प्रतिमाजी विराजमान हैं। ___ यहाँ पर कई प्रांतों से जैनजैनेतर भाई यात्रा करने के लिए आते हैं। चैत्र सुदी १३ को बड़े उत्साहपूर्वक मेला होता है। उस समय हजारों की संख्या में लोग प्रभु भक्ति का लाभ उठाते है। यह तीर्थ अत्यधिक जीर्ण होने से श्री बीजापुर संघ के ट्रस्टियों (वहिवटकर्ता) की भावना जीर्णोद्धार करवानेकी हुई। और उस पर बीजापुर निवासियों ने बम्बई में एक जीर्णोद्धार कमेटी की स्थापना कर फंड इकट्ठा करवाने की शुरुआत कर वि. सं. २००१ में मंदिरजी का जीर्णोद्धार का कार्य शुरु करवाया। बाद वि. सं. २००६ में मूल मंदिरजी का जीर्णोद्धार का कार्य पूर्ण हुआ।
जह सीहो व मिअंगहाय, मच्च नरं नेइ हु अंतकाले। न तस्स माया व पिया भाया, कालंमि तम्मंसहरा भवंति ।। न तस्स दुक्खं विभयंति नाईओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा ।
एक्को सय पच्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं ।। जिस प्रकार मुगको सिंह ले जाता है उस समय उसे कोइ बचा सकता नहीं है इसी प्रकार मानव को मृत्यु जब सचमुच देहके अंतकाल के समीप ले जाती है, उस समय उसके माता-पिता, भाई-बहन, स्वजन पुत्र और मित्र कोई उसे बचा नहीं सकते और न उसके दुःखको बांट सकते हैं। किंतु एक मरनेवाला जीव स्वयं दुःख भोगता हैं क्योंकि कर्म (सदैव ) कर्ताका ही अनुसरण करता है।
मुखी रहे सब जीव जगतके, कोई कभी नहीं घबरावे । वैर-पाप-अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गावे ।।