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________________ જન યુગ ३४ સપ્ટેમ્બર ૧૯૫૯ mmmmmmmm । देते हुए शासन और तीर्थ के रक्षणार्थ राजकीय शासनपत्र लिखकर दिये। उन मारवाड के नगरपतियों के नाम इस प्रकार हैं : (१) विदग्ध राजा, (२) दुल्लम राजा, (३) सामतसिंह, (४) महेन्द्र राजा, (५) धरणीवराह राजा, (६) हरीबर्म राजा, (७) ममट राजा, (८) धवल राजा, (९) मुज राजा, उपरोक्त महाराजाओं ने जो शासनपत्र लिखकर दिये वे प्राचीन लेखसंग्रह में इस प्रकार हैंलेख नं. पृष्ठ विक्रम संवत् गाथा ३१८ १७५ १०५३ ३१९ १८१ ९९६ २१ ३२० १८३ १३३५५ ३२१ १८४ १३४५ ३२२ १८५ १२९९ ३२३ १८५ १३४६ उपरोक्त उद्धार का परिचय शासन पत्र महान् नरेशों की ओर से अपने आप तृतीय भाग में से एक हिस्सा आचार्यों को धर्म के प्रचार एवं द्वितीय हिस्सा आचार्यों को धर्म के रक्षणार्थ अपंग किया हुआ था। इस विशाल कार्य अन्त चैत्य का प्रथम जीणोद्धार ९९६ में हुआ। इस विशाल कार्य अन्ति चैत्य का प्रथम जीर्णोद्धार विदग्ध राजा ने करवाया था एवं दर्थव ने शरीर भार सुवर्ण अर्पित किया था। और शासनपत्रों में लिखा है कि जहांतक पर्वत, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, गंगा, सरस्वती कायम है, वहां तक यह शासनपत्र कायम रहेगा। विक्रम संवत् १०५३ माघ सुदी १३ को सूरिजी ने प्रथम तीर्थकर की प्रतिष्ठा करवा कर स्थापना करवाई। विक्रम संवत् १२९९ चैत्र सुदी ११ शुक्रवार को शिष्य पूर्णचंद्र उपाध्याय द्वारा उपदेश देकर शिखरो कारखानों का गोखलों पर लेख है। विक्रम संवत् १३२५ फागण सुदी ८ को मुनि महाराज शीलविजयजी, आचार्य महाराज बलभद्र सूरि, वासुदेव सूरि हधुंडी गच्छ से पाट परम्परानुसार आचार्यों के हाथ से श्री ऋषभदेव प्रभु की मूर्ति की प्रतिष्ठा उदयपुर के समीप में बाबुला नाम के गांव में हुई। उपरोक्त शिलालेख व शासनपत्र आज भी यहाँ श्री राता महावीर प्रभु के मंदिर के दीवालों में तथा स्तम्भों पर कुतरे हुए हैं। उनमें से एक शिलालेख नं. ३१८ ३१९ वि. से. ९९६, १०५३ का इस जिनालय में प्रवेश यरते 'मूलद्वार' में बाएँ हाथ की ओर एक ताक पर शिलाखण्ड कर कुतरा हुआ था। वह लेख वहाँ से वि. सं. १९५२ में उखाड कर जोधपुर ले गये वहाँ से उसे अजमेर म्युजियम में ले गये हैं जो वहाँ अब भी मौजूद है। उपरोक्त शिलालेख की एपीग्रोफीका इण्डिया के १० वें भाग में (पृष्ठ १७-२०) पण्डित रामकरण द्वारा प्रगट किये हैं। इसके पूर्व गवेषणा करनेवाले (कोलहोने) तथा (केप्टन बर्ट) थे। तदुपरांत इस देवालय में से तीन शिलाखण्ड और उपलब्ध हुए थे जो निम्नलिखित हैं। शिलाखण्ड नं. ७ संवत् १०११ ज्येष्ठ वदी पंचमी श्री शान्तिभद्राचार्य भाण्डपोड्यं महिर सुत्रधार वामक शुभहस्तेन करितों सैवदिने श्री यशोभद्राचार्याणां सुरिपद प्रतिष्ठेति । __ शिला नं. ८ सं. १०४८ वैशाख वदी ४ श्री शान्तिभद्राचाय गोष्ट्या माण्डपोड्य कारितः शिलाखण्ड नं. ९ सं. ११२२ मार्गशीर्ष शुक्ल १३ पासनाग शिष्येण सुमण हस्तिना बलिभद्र (वासुदेवसूरी) ना इत्यादि। रास में भी लिखा है हस्तिकुण्डी एहबु अभिधान स्थापिउ गच्छपति प्रगट प्रधान; महावीर केरईप्रसादी, वाजई भृण्गल नादि। शीलाविजयजी स्वकृत तीर्थमाला मे लिखते हैं:'रातावीरे पुरी मनसी आस'। जिनतिलक सूरि अपनी तीर्थमाला में जिन जिन ग्रामों में महावीर के देवालय के उपस्थिति का वर्णन करते हैं उसमें हस्तीकुण्डी का नामोल्लेख किया है। __ श्री अचलगच्छीय मोटी पट्टावली में लिखा है कि वि. सं. १२०८ को आचार्य महाराज श्री जयसिंहसूरिजी अपने गुरु महाराज की आज्ञा से अपने शिष्य परिवार के साथ विचरते विचरते इस हडंडी (हस्तिकुण्डी) नगर में पधारे। राठोड क्षत्रिय बंशी अनंतसिंह नाम का राजा राज्य करता था वह पूर्व कर्म के उदय से जलोदर नाम के भयंकर रोग से दुखी हो रहा था। इस समाचार के महा प्रभावक आचार्य महाराज श्री को मालूम होने पर और भविष्य में लाभ होना समझकर रोग निवारण के लिए
SR No.536283
Book TitleJain Yug 1959
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1959
Total Pages524
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size34 MB
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