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मुंड स्थल म हा तीर्थ
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श्री. सौभाग्यचन्द्र सिंगी
आबू पर्वत के चारों ओर आधुनिक तीर्थों की इतनी भरमार है कि गांव गांव में मंदिर है परन्तु महत्व, महानता और पुरातत्व एवं प्राचीनता की दृष्टि से भी यह प्रदेश काफी आगे हैं। जीरावल, बामणवाडा, नांदीया, वसन्तगढ, आबू (देलवाडा) की पवित्र-भूमियों के नाम तो हर जैन-बन्धु की जबान पर अवश्य ही होंगें। लेकिन मुंडस्थल महातीर्थ की जानकारी लोगों को बहुत ही कम है जिसका विस्तृत इतिहास जितना रोचक है उतना ही ऐतिहासिक शोध-खोद का विषय बन गया है। क्या २५०० वर्ष पूर्व चरम-तीर्थंकर भगवान महावीर इस स्थल पर पधारे थे ? यह एक बडी प्रश्नसूचक बात है।
आबूरोड रेलवे स्टेशन से करीबन ४॥ मील दूर मुंडस्थल महातीर्थ बसा हुआ है। इसका आधुनिक नाम मुंगथला है। यह एक छोटासा गांव है जहां पर खेतीवाडी करने वाले लोग रहते हैं। आबू-मंडार की मेन रोड पर होने से आवागमन के साधन सम्पूर्ण है। आबूरोड स्टेशन पर यहां तक आने के लिये टैक्सी भी मिल सकती है।
पिछले ५० वर्षों से यह विशाल मंदिर बिल्कुल ही जिर्ण अवस्था में पड़ा हुआ था और भगवान की कोई भी प्रतिमाजी विगैरा न थी। विक्रम संवत् १९५४ में पूज्य श्री कांतिविजयजी महाराज के शिष्य श्री चतुरविजयजी मुगथला पधारें तब यह मंदिर पूरे पूरा बना हुआ शिखरबन्ध था। स्वर्गीय मुनि महाराज श्री जयन्तविजयजी महाराज सा० पधारे तब भी कुछ भाग अच्छा था परन्तु कुछ भाग गिर चुका था। उसके बाद तो दिवाले गिरने लगी और प्रकृति ने अपना कब्जा करना शुरू किया। बहुतसी झाडियाँ और पेड पौधे उग गये और लोगों ने वहां शौच आदि जाना शुरू किया | कितना पवित्र स्थल! और क्या दुर्दशा ? इतिहास
ठीक ठीक तो नहीं कहा जा सकता कि मुंडस्थल के इस तीर्थ की स्थापना कब हुई परन्तु शास्त्रों में इसको "महातीर्थ" कहा गया है। स्वर्गीय मुनि महाराजश्री जयन्ति विजयजी महाराज सा० जो इतिहास की शोध में बडी
रुचि रखते थे मुगथला पधारे और मूल गंभारे के द्वार पर खडे खडे देख रहे थे कि उनका हाथ लगते है ही एक चुने का ढेफा गिरा और उसमें से एक अद्वितीय ऐतिहासिक सामग्री के रूप में एक निम्न शिलालेख पढने में आयाः
पूर्वछद्मस्थकालेऽर्बुद भुविः यमिन कुर्वतः सद्वि(सप्त)हारं त्रिंशे च वर्षे वहति भगवतो जन्मतः कारितास्ताः (सा)
श्री देवार्यस्य यस्योल्लसदुपलमयी पूर्णराजेन राज्ञा
श्री केशीसु (शिना) प्रतिष्ठाः स जयतिहि जिनस्तीर्थः मुंडस्थलस्तुः. (स्थः) ॥ सं (०) १४२५ संवात् श्री वीर जन्म३१...श्री देवा जारु. ० पू....... न कारितं ॥ ___ इस लेख के आधारपर एक बड़ी ही जबरदस्त चर्चा चली । शास्त्रों और इतिहास के पन्नों पर सबकी दृष्टि गई और आखिर मेहनतका परिणाम यह निकाला कि आचार्य श्री महेन्द्रसूरि महाराज ने अष्टोतरी तीर्थमाला में १२ वीं शताब्दी में निम्न शब्द लिखे थे, (अंचल गच्छ पंच प्रतिक्रमणा सूत्र पृष्ट ८९) अब्बुयगिरिवर मूले, मुंडथले नंदीरुक्ख अहभागे छडमत्थकालि वीरो, अचल सरीरो स्यिो पडिमं ।। तो पुन्नराय नामा, कोई महप्पा जिणस्स भत्तीए कारइ पडिमं वरिसे, सगतीसे, (३१) वीर जन्माओ ।। किंचुणा अठारसवास सयाण य पवरतित्थस्स तो मित्थघण समीरं, थणेमि मुंडस्थले वीरं ।।
क्या भगवान् महावीर अपने ३७ वें वर्ष में छमस्थ अवस्था में यहां पधारें ? क्या यह शिलालेख ऐसे ही लिखा गया है ? क्या इस प्रकार का स्पष्ट शिलालेख और किसी स्थान पर प्राप्त हुआ ? ये प्रश हरेक के दिमाग में आये बिना नहीं रह सकते ?
लेकिन इन सबको अलग रखे फिर भी एक बात तो साफ है कि मुंगथला या मुंडस्थल "महातीर्थ" भूतकाल में था और उसकी प्रतिष्ठा उच्च प्रकार की थी। ज्यों ज्यों मुसलमानों के आक्रमण इस भूमि पर होते गये यह स्थान भी चन्द्रावती की तरह उजड होता रहा । ठीक तो यह कहना होगा कि चन्द्रावती का प्रदेश मुंडस्थल स्थान को
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