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________________ જૈન યુગ ઑગસ્ટ ૧૯૫૯ के समय के सिक्के और बहुत पुराने ढंग के संचित किये हुये परंतु काले पडे हुये चावल मिले । ये सब चीजें इस बात की पुष्टि करते हैं कि यह मंदिर काफी प्राचीन होगा Pip.. BAR A 41 wity अपने में समावेश कर लेता होगा। जहां पर यह मंदिर बना हुआ है वहां की नींवों का निरीक्षण करने बैठे तो पता चलेगा कि इस मंदिर का आहता बहुत विस्तृत था। इस मंदिर में सबसे पुराना शिलालेख विक्रम संवत् १२९५ का मिला है उस समय इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया था। संवत् १४२५ के शिलालेखमें लिखा है कि इस मंदिर का जिर्णोद्धार फिरसे कराया गया तथा चौबीस बिंबो की प्रतिष्ठा व ध्वज महोत्सव हुआ। संवत् १५०१ में तपगच्छ के आचार्य लक्ष्मी सागरसूरि को वाचक पदवी यहांपर दी गई और सं. १९२२ में यहां १४५ जिन बिंब होने का वर्णन मिलता है। अतः यह तीर्थ प्राचीन व पवित्र है। जब इसकी अति शोचनीय हालत पर पूज्य आचार्य श्री विजय नीतिसूरि महाराज की दृष्टि पडी तो उन्होंने इस तरफ ध्यान दिया परन्तु वे शीघ्र चल बसे। बाद सन् १९५२ में इतिहाश एवं विद्वान मुनि जिनविजयजीने प्रेरणा की कि इस पवित्र एवं ऐतिहासिक चीज का इस प्रकार ध्वंस न होना चाहिये तो इस भावभरी प्रेरणा को लेकर कुछ उत्साही व्यक्तियों ने इसके पुनरोद्धार का कार्य उठाया। सिरोही निवासी श्री अचलमल मोदी ने भगीरथ प्रयास का आश्वासन दिया। सेठ कल्याणजी परमानंदजी, आबू देलवाडा मंदिरों के व्यवस्थापकों ने गहरी दिलचस्पी ली। इस प्रकार के प्रयत्नों से आज मुंगथलामें फिर से एक ऐतिहासिक स्मृति का पुनःस्मरण करानेवाला मंदिर तैयार हो गया है। इस मंदिरमें सर्वप्रथम तो यह भावना रखी गई थी कि भगवान महावीर की सर्व धातु की कायाउत्सर्ग प्रतिमा विराजमान की जाय परंतु बादमें आबू-देलवाडा से मुंडस्थल की पुरानी दो प्रतिमायें लाई गई और काउसग-ध्यान की महावीर स्वामी की प्रतिमाजी मध्य में सिरोहीसे लाकर विराजमान की गई । वैशाख सुदि १० के दिन एकदम सादगी से इसका फिरसे प्रतिष्ठा महोत्सव किया गया है। कौन कह सकता है कि इस पवित्र तीर्थ के पुनरोद्धार की तरफ यदि ध्यान न दिया गया होता तो वास्तवमें इतिहास की एक महान् चीज प्रकृति के क्रूर प्रहारों से ध्वंस होकर नष्ट न हो जाती है इसकी खुदाई में सम्राट समुद्रगुप्त (गुप्त वंश) मूळनायक भगवान महावीर और भगवान् महावीर के ३७ वरस में यहां पधारने की मान्यता को साधारण तौर से निकाला नहीं जा सकता। हमारे पूज्य मुनिवरों व आचार्यों ने जब उस चीजको शिलालेख का रुप दिया तो उसमें काफी तथ्य होंगें । ___अभी अभी वहां पर पक्की सडक, धर्मशाला और सरकारी स्कूल की स्थापना हो चुकी है। इस स्थल के महत्त्व को कायम रखने का कार्य तो अब जैन समाज का है।
SR No.536283
Book TitleJain Yug 1959
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1959
Total Pages524
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size34 MB
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