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મે ૧૯૫૯
જૈન યુગ
नहीं सुलझती, परन्तु इस लेख में जो कन्नौज के प्रतिहारराजा भोज (लगभग ८४०-८९० ई०) का नामोल्लेख है वह इसे विशेष महत्त्व प्रदान करता है। वास्तव में देवगढ़ का यह अभिलेख राजा भोज के शासन-काल का निर्णय करने में विशेष सहायक हुआ है। मन्दिरों का इतिहास जानने के लिये एक अन्य अभिलेख इससे भी अधिक महत्त्व रखता है। यह अभिलेख मन्दिर नं. १२ के भीतरी द्वार की चौखट के बाये भीतरी भाग पर उत्कीर्ण है। इसमें कहा गया है कि प्रस्तुत चौखट सं० १०५१ में स्थापित की गई थी। इस चौखट की रचना-शैली से यह स्पष्ट है कि यह मन्दिर की मूल-योजना का एक अंग नहीं थी, परन्तु एक पुरानी चौखट के स्थान पर बाद में इसका स्थापना की गई। वर्तमान चौखट की रचना-शैली मन्दिर की रचना-शैली से कुछ नवीन है। अतः यह अनुमान किया जा सकता है कि मन्दिर वर्तमान चौखट से सौ-डेढ़ सौ वर्ष पुराना होगा। अर्थात् मन्दिर नं० १२ का निर्माणकार्य कदाचित् नवम-शताब्दी के मध्य में सम्पन्न हुआ
और इस प्रकार से यह उपर्युक्त स्तम्भ का समकालीन कहा जा सकता है। __वर्तमान मन्दिरों के साथ ही साथ कुछ पुराने मन्दिरों के भग्नावशेष भी मिलते हैं, जिनमें से कुछ तो इस प्रदेश में इधर-उधर बिखरे हुए हैं और कुछ का उपयोग
तमान मन्दिरों की रचना में कर लिया गया है। इन मन्दिरों की संख्या और स्थिति के विषय में कुछ अधिक जान सकना संभव नहीं। हम यह भी निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि वर्तमान मन्दिरों में मिलने वाली सभी मुत्तियाँ आरंभ से ही इन्हीं स्थानों पर रखी हुई थीं या नहीं । कदाचित् इनमें से कुछ मूर्तियाँ पुराने मन्दिरों के भग्न हो जाने पर उनमें से अपने वर्तमान स्थान पर उठाकर लाई गई हैं। इन बिखरे हुए भग्नावशेषों की रचना शैली से यह स्पष्ट है कि इनमें से शायद ही कोई नवम-शताब्दी के पूर्व की रचना मानी जा सके।
मन्दिर नं. १२ में रखी हुई खड़े शांतिनाथ की महान् प्रतिमा (नं. १) ऊंचाई, समय और अपने कलात्मक गुणों के कारण इन स्मारकों में सबसे अधिक गौरवशालिनी है । इस जिन-मूर्ति के भामण्डल पर बने हुए सज्जा-तत्त्व तथा दक्षिण और वाम पार्श्व में स्थित दो चौंरीदारों की लावण्यपूर्ण भङ्गिमा आज भी गुप्तकला का स्मरण दिलाती हैं। मन्दिर नं. १५ के गर्भगृह में अवस्थित आसनस्थ
जिन प्रतिमा (नं. २) इससे सर्वथा भिन्न है। निस्सन्देह यह प्रतिमा भी गुप्तकाल की कलागत परम्पराओं पर आश्रित है, इसका स्पष्ट प्रमाण सारनाथ में अवस्थित गुप्तकाल की बुद्ध-प्रतिमा से इसकी समानता है। समय की दृष्टि से भी मन्दिर नं. १२ की खड़ी प्रतिमा (नवम शताब्दी) से यह अधिक भिन्न नहीं हो सकती। परन्तु दोनों प्रतिमाओं की तुलना करने पर यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि कैसे गुप्तयुग के बाद कला की एकता का स्थान अपने आपको स्वतन्त्र रूप में अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली प्रवृत्तियों की विविधता ने ले लिया।
निस्सन्देह दोनों प्रतिमाएँ आध्यामिकता और बाह्य संसार के प्रति उदासीनता का स्पष्ट भाव अभिव्यक्त करती हैं। परन्तु जहाँ खड़ी जिनप्रतिमा अधिक कठोर और निष्क्रिय है, वहाँ आसनस्थ जिन-प्रतिमा अधिक सजीव है। पहली भय का संचार कर देती है, दूसरी करुणा का मूर्त्तिमान् प्रवाह है; पहली संसार के प्रति स्पष्ट अवहेलना का भाव प्रकट करती है, दूसरी हर्षोत्फुल्ल और अनुप्राणित प्रतिमाओं से घिरी हुई है जिनकी उपस्थिति के प्रति वह रंचमात्र भी असहिष्णु नहीं।
परवर्ती मूर्तिकला में यह भेद और भी अधिक स्पष्ट है। मन्दिर नं. २१ के दाँये कमरे में आसनस्थ जिन-प्रतिमा (नं. ३) अपनी सज्जागत समृद्धि और केन्द्रस्थित तथा चारों ओर स्थित प्रतिमाओं के चित्ताकर्षक एकीकरण की दृष्टि से गुप्तकला की सफलताओं को भी पीछे छोड़ गई है। परन्तु यह केन्द्रस्थित जिन सम्पूर्ण चित्ररचना का एक ऐसा अविभाज्य अंग बन चुका है कि प्रधान प्रतिमा
और गौण प्रतिमाओं अथवा केन्द्र और परिघ का स्पष्ट भेद कुछ धूमिल-सा पड़ गया है, यह धूमिलता उत्तरकालीन मूर्तियों में और भी अधिक प्रखर हो गई है। पर इसप्रकार की मूर्तियों के मुखमण्डल की रचना में सामान्यतः कोई विशेष मौलिकता दिखाई नहीं पड़ती।
उपर्युक्त प्रतिमा उच्चकोटि की आलंकारिक शैली का प्रतिनिधि निदर्शन है। अब हम दूसरे वर्ग की प्रतिमाओं पर भी कुछ विचार कर लें, जिनमें सज्जागत तत्त्व या तो अलक्षणीय हैं या उनका एकान्त अभाव है। यहाँ वास्तव में कलाकार का मुख्य उद्देश्य मुखमण्डल को विशिष्ट रूप प्रदान करना रहा है, इस दिशा में उसने कुछ अभिनव प्रयोग भी किये हैं। उदाहरण के लिये हम मन्दिर नं. १२ के मण्डप में स्थित आसनस्थ जिन-प्रतिमा (नं. ४) को