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मध्य देश के जैन तीर्थ
३ देवगढ'
डा० क्लाउस ब्रून
अनु० श्री तिलक राज चोपड़ा बहुधा देवगढ़ का स्मरण उसके छठी शताब्दी ईस्वी में में स्थित है। यह किला गाँव के पूर्व में अवस्थित पहाड़ी बने विष्णु मन्दिर के कारण ही किया जाता है। यह पर है। इस समय यहाँ लगभग तीस-चालीस मन्दिर हैं। मन्दिर गुप्तयुगीन कला का प्रतिनिधित्व करता है। वास्तव जहाँ एक ओर यहाँ का मन्दिर नं. १२ उत्तरी भारत के में गुप्तकला सदा से ही भारतीय कला की चरमपराकाष्ठा आदिमध्यकालीन विशाल मन्दिरों में से एक है, वहीं मानी जाती रही है, यहाँ तक कि इसके सम्मुख अन्य दूसरी ओर यहाँ ऐसे छोटे-छोटे मन्दिर भी हैं, जिनके युगों की कला को उपेक्षाभाव से देखा जाता रहा है। भीतर एक पुरुष सीधा खडा नहीं हो सकता। इस प्रकार भारतीय कला विकास के अन्य युगों की महत्ता को अभी आकार की दृष्टि से यहाँ के मन्दिरों में पर्याप्त विभेद पाया हाल ही में ठीक प्रकार से समझा गया है और उनके जाता है। विशिष्ट गुणों का मूल्याङ्कन किया जा सका है। काल की दृष्टि से भी ये मन्दिर विभिन्न स्तरों का यद्यपि यह कहा जा सकता है कि परवर्ती कला की प्रतिनिधित्व करते हैं । यह स्पष्ट है कि इनका निर्माण एक
प्रतिनिधित्व करते हैं। यह परे किट विशेषताएँ, कुछ अंशों तक बीज रूप में गुप्तयुगीन ही व्यक्ति के जीवन-काल में संभव नहीं। अतः हमें इस कला में वर्तमान हैं, यथा-क्रियाशीलता, विशेषणों स्थानीय दन्तकथा को अस्वीकार करना पड़ेगा कि इन सभी की समृद्धि, मौलिक मुखसंघटना, शारीरिक गति. मन्दिरों की रचना देवपत और खेवपत नाम के दो भाइयो लावण्य, तथा सज्जा-तत्त्वों का अपूर्व सौन्दर्य । तथापि ने की थी। मन्दिर नं. १२ नवम-शताब्दी ईस्वी की रचना गुप्तकला में जहाँ ये विशेषताएँ एक सम्पूर्ण समन्वय का है. जबकि अन्य मन्दिरों में से अधिकांश बाद की अङ्ग बन चुकी थीं, वहाँ बाद में वे एक दूसरे से स्वतन्त्र
शताब्दियों में निर्मित हुए। हम अनुमान कर सकते हैं कि होकर मुक्त हो गई। गुप्तकला के एकाकी निदर्शन में इस स्थान के निर्माण कार्य में कम-से-कम आधी सहस्राब्दी प्रायः हम उस युग की कला की सभी विशेषताएँ संघटित
अवश्य लगी होगी। रूप में देख सकते हैं परंतु परवती कला के किसी एक
यद्यपि प्रतिमाओं, स्तम्भों और भवनों के विभिन्न भागों निदर्शन में हम उस युग की कला की मुख्य विशेषताएँ
पर लगभग तीन-चार सौ अभिलेख (जिनमें से अधिकांश एक स्थान पर संघटित नहीं देख सकते । उदाहरणतः
बहुत संक्षिप्त है) उत्कीर्ण मिलते हैं, तथापि हम इनकी परवर्ती जैन कला में हम ऐसी प्रतिमाएँ पाते हैं जो एक
सहायता से इस तीर्थ के इतिहास की सन्तोषजनक व्याख्या ओर तो सज्जा-परिमार्जन की चामत्कारिक पराकाष्ठा को
नहीं कर सकते । अधिकांश लेखों में केवल दाता और सूचित करती हैं, परन्तु दूसरी ओर प्रतिमाओं की मुख
उसके पूर्वजों अथवा परम्परागत गुरुओं की नामावली ही संघटना कुछ एकरस है। अन्य प्रतिमाएँ बहुत-कुछ
मिलती है। इनमें से एक महत्त्वपूर्ण अभिलेख मन्दिर अपने मौलिक रूप में जिन की गंभीर समाहितचित्तता को
नं. १२ के द्वारमण्डप के आधारस्तम्भों में से एक पर तो सूचित करती हैं, परन्तु उनमें कोई विशेष सज्जागत
उत्कीर्ण मिलता है। इसमें इस स्तम्भ की स्थापना-तिथि बाह्य चमत्कार नहीं दिखाई पड़ता। देवगढ़ के जैन मन्दिरों
९१९ सं० दी गई है। यह स्पष्ट है कि एक स्तम्भ के में मुख्य रूप से भारतीय कला के विकास का यही उत्तर
रचनाकाल को जान लेने मात्र से ही कोई विशेष समस्या कालीन स्तर अभिव्यंजित हुआ है। इन मन्दिरों की मूर्तिकला का विवेचन करने के पूर्व हमें इस स्थान का १) यह लेख इस लेखमाला के अन्य लेखों से अपनी भाषा संक्षिप्त परिचय जान लेना चाहिए।
और शैली की दृष्टि से कुछ भिन्न है क्योंकि यह एक सभी जैन मन्दिर देवगढ़ के किले के उत्तरपूर्वी भाग विशेष अवसर के लिये लिखा गया था।