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________________ જૈન યુગ મે ૧૯૫૦ वेदादि पढ़ने के एकमात्र अधिकारी ब्राह्मण ही माने जाते थे। ईश्वर एक विशिष्ट शक्ति है। संसार के सारे कार्य उसी के द्वारा परिचालित है। सुखदुःख व कर्मदाता ईश्वर ही है। विश्व की रचना भी ईश्वर ने ही की है। इत्यादि बातें विशेषरूप से सर्वजनमान्य थी। इसके कारण लोग स्वावलम्बी न होकर केवल ईश्वर के भरोसे बैठ रह कर आत्मोन्नति के सच्चे मार्गमें प्रयत्नशील नहीं थे। मुक्तिलाम ईश्वर की कृपा पर ही माना जाता था। कल्याण पथमें 'विशेष' मनोयोग न देकर लोग ईश्वर की लम्बी लम्बी प्रार्थनाएँ करने में ही निमग्न थे। और प्रायः इसी में अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते थें। इस विकट परिस्थिति के कारण लोग बहुत अशान्ति भोग कर रहे थे। शूद्रादि तो अत्याचारों से ऊब गये थे। उनकी आत्मा शान्ति प्राप्ति के लिए व्याकुल हो उठी थी। वे शान्तिकी शोध में आतुर हो गये थे। भगवान महावीरने अशान्ति के कारणों पर बहुत मनन कर, शान्ति के वास्तविक पथका गंभीर अनुशीलन किया। उन्होंने पूर्व परिस्थिति का कायापलट किये बिना शान्ति लाभको असंभव समझ, अपने अनुभव सिद्धान्तों द्वारा क्रान्ति मचा दी। उन्होंने जगत के वातावरण की कोई पर्वाह 'न' कर साहस के साथ अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया। उनके द्वारा विश्वको एक नया प्रकाश मिला। महावीर के प्रति जनता का आकर्षण क्रमशः बढ़ता चला गया। फलतः लाखों व्यक्ति वीर शासन की पवित्र छत्र छाया में शान्ति लाभ करने लगे। उच्चता और नीचता के संबंध में जाति के बदले गणोंको प्रधान स्थान दिया गया। सच्चा ब्राह्मण कोन है, इस की विशद व्याख्या की गई, जिसकी कुछ रूपरेखा जैनों के " उतराध्ययनसूत्र" एवं बौद्धों के “धम्मपद" में पाई जाती है। लोगों को यह सिद्धान्त बहुत संगत और सत्यप्रतीत हुआ । फलतः लोक समूह-झुण्ड के झुंड महावीर के उपदेशों को श्रवणकरने के लिए उमड़ पड़े। उन्होंने अपना वास्तविक व्यक्तित्व लाभ किया वीर शासन के दिव्य आलोक से चिरकालीन अज्ञानमय भ्रान्त धारणा विलीन हो गई । विश्वने एक नई शिक्षा प्राप्त की, जिसके कारण हजारों शूद्रों एवं लाखों स्त्रियोंने आत्मोद्धार किया। एक सदाचारी शूद्र निर्गुण ब्राहाण से लाख गुणा उच्च है अर्थात् उच्च नीचका माप जातिसे न होकर, गुण सापेक्ष हैं। कहा भी है "गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंगं न च वयः!" धार्मिक अधिकारों में जिस प्रकार सबप्राणी समान हकदार हैं उसी प्रकार प्राणीमात्र सुखाकांक्षी हैं। सब जीने के इच्छुक हैं; मरण से सबको भय एवं कष्ट है, अतएव प्राणीमात्र पर दया रखना वीरशासनका मुख्य सिद्धान्त है। इसके द्वारा यज्ञयागादि में असंख्य मूक पशुओका जो आयेदिन संहार हुआ करता था, वह सर्वथा रूक गया। लोगोंने इस सिद्धान्त की सचाई का अनुभव किया कि जिस प्रकार हमें कोई मारने को कहता है तो हमें उस कथन मात्र से कष्ट होता है उसी प्रकार हम किसी को सतायेंगे तो उसे अवश्य कष्ट होगा। परपीड़न में कभी धर्म हो ही नहीं सकता। मूक पशु चाहे मुखसे अपना दुःख व्यक्त न कर सकें पर उनकी चेष्टाओं द्वारा यह भलीभांति ज्ञात होता है कि मारने पर उन्हें भी हमारी भ्रान्ति कष्ट अवश्य होता है। इस निर्मल दया उपदेश का जनसाधारण पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और ब्राह्मणों के लाख विरोध करनेपर भी यज्ञयागादि की हिंसा बन्द हो ही गई। इस सिद्धान्त से अनन्त जीवोंका रक्षण हुआ और असंख्य व्यक्तियों का पाप से बचाव हुआ। अहिंसा की व्याख्या वीर शासनमें जिस विशद रूप से पाई जाती है, किसी मी दर्शन में वैसी उपलब्ध नही है। विश्वशान्तिके लिए इसकी कितनी आवश्यकता है. यह भगवान महावीरने भली भाँति सिद्ध कर दिखाया। कठोर से कठोर हृदय भी कोमल हो गये और विश्वप्रेम की अखण्ड धारा चारों ओर प्रवाहित हो चली। वीरशासन की विशेषताएँ वीरशासन की सबसे बड़ी विशेषता " विश्वप्रेम" है। इस भावना द्वारा अहिंसाको धर्म में प्रधान स्थान मिला, सब प्राणीयोंको धार्मिक अधिकार एकसमान दिये गये। पापी से पापी और शूद्र एवं स्त्री जातिको मुक्तितक का अधिकार घोषित किया गया और कहा गया कि मोक्ष का दरवाजा सबके लिए खुला है। धर्म पवित्र वस्तु है। उसका जो पालन करेगा, वह जाति अथवा कर्म से चाहे कितनाही नीचा क्यों न हो, अवश्य पवित्र हो जायगा। साथ ही जातिवाद का जोरों से खंडन किया गया। उच्च और नीचता का सच्चा रहस्य प्रकट किया गया और
SR No.536283
Book TitleJain Yug 1959
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1959
Total Pages524
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size34 MB
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