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જૈન યુગ
वीर शासन में वर्णाश्रमवाद को अनुपयुक्त घोषित किया गया। मनुष्य के जीवनका कोई भरोसा नहीं हजारों प्राणी बाल्यकाल एवं यौवनावस्था में मरण को प्राप्त हो जाते हैं। अतः आश्रमानुसार धर्मपालन उचित नहीं कहा जा सकता । एवं व्यक्तियों का विकास भी एक समान नहीं होता। किसी आत्माको अपने पूर्व संस्कारों एवं साधना के द्वारा चाल्यकालमें ही सदन वैराग्य हो जाता है। धर्म की ओर उसका विशेष झुकाव होता है। तत्र किसी को वृद्ध होनेपर भी वैराग्य नहीं होता। इस परिस्थिति में वैराग्यवान चालक को गृहस्थाश्रम पालन के लिए मजबूर करना अहितकर है और वैराग्यहीन वृद्धका संन्यास ग्रहण भी बेकार है। अतः आश्रमन्यवस्था के बदले धर्मपालन, योग्यता पर निर्भर करना चाहिए। दाँ, योग्यता की परीक्षा में असावधानी करना उचित नहीं है।
इसी प्रकार ईश्वरवाद के बदले वीरशासन में कर्मवाद पर जोर दिया है। जीव स्वयं कर्मका कर्ता है। और वह स्वभावानुसार स्वयं ही उसका फल भोगता है । ईश्वर शुद्ध बुद्ध है, उसे सांसारिक झंझटोसे कोई मतलब नहीं। वह किसीको तारने में भी समर्थ नहीं। यदि लम्बी प्रार्थना ही मुक्ति मिल जाती तो संसारमें आज अनन्त जीव शायद ही मिलते । जीव अपने भले बुरे कर्म करने 1 में स्वयं स्वतंत्र है। पौरूष के बिना मुक्तिलाभ संभव नहीं । अतः प्रत्येक प्राणीको अपना निवस्वरूप पहिचान कर अपने पैरों पर खड़े होने का अर्थात् स्वावलंबी बनकर आत्मोद्धार करनेका सतत प्रयत्न करना चाहिए। ईश्वर न तो सृष्टिरचयिता है और न कर्म फलदाता ।
शुष्क क्रियाकांडों और बाह्य शुद्धिके स्थानपर वीरशासन में अन्तर शुद्धिपर विशेष लक्ष्य दिया गया है । अन्तर शुद्धि साध्य है, बाह्य शुद्धि उसका साधन मात्र है। अतः साध्यके लक्ष्य विना क्रिया फलवती नहीं होती । केवल
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મે ૧૯૫૯
'जटा बढ़ानेसे राख लगानेसे नित्यस्नानकर लेनेसे व पंचाग्रि तप आदि सिद्धि नहीं मिल सकती। अतः क्रिया के साथ चित्तशुद्धि भावका होना नितान्त आवश्यक है ।
वीर प्रभुने अपना उपदेश जनसाधारणकी भाषामें ही दिया; क्योंकि धर्म केवल पंडितोंकी संपत्ति नहीं, उसपर प्राणीमात्र का अधिकार है। यह भी वीरशासनकी एक महान विशेषता है । उसका लक्ष्य एक मात्र विश्वकल्याण का था । सूत्रकृतांग सूत्रसे स्पष्ट है कि भगवान महावीर के समय में भी वर्तमान की भाँति अनेकों मतमतान्तर प्रचलित थे । इस कारण जनता बडे भ्रममें पडी थी कि किसका कहना सत्य एवं मानने योग्य है और किसका असत्य है ? मत प्रवर्तकोंमें सर्वदा मुठभेड़ हुआ करती थी एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी शास्त्रार्थं चला करते थे। अपने अपने सिद्धान्तों पर प्रायः सब अड़े हुए थे। सत्यकी जिज्ञासा मन्द पड गई थी तब भगवान महावीर ने उन सबका समन्वय कर वास्तविक सत्यप्राप्ति के लिए " अनेकान्त" को अपने शासन में विशिष्ट स्थान दिया, जिसके द्वारा सत्र मतों के विचारों को समभाव से तोला जा सके, पचाया जा सके, सत्य को प्राप्त किया जा सके। इस सिद्धान्त द्वारा लोगोंका बडा कल्याण हुआ । विचार उदार एवं विशाल हो गये, सत्य की जिज्ञासा पुनः प्रतिष्ठित हुई सच वितंडवाद एवं कल उपशान्त दो गये और इस तरह वीरशासन का सर्वत्र जयजयकार होने लगा ।
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आज महावीर के उपदेशों का प्रचार होना आवश्यक है । विश्वकल्याण के लिए अहिंसा, अपरिग्रह एवं धर्मं समन्ययादि की बहुत ही आवश्यकता है। जैन समाजने भी अब सर्वत्र एवं समस्त जगतमें महावीर के उपदेशों का प्रचार करना चाहिये ।
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