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महावीर शासन की विशेषताएँ
भगवान महावीर का पवित्र शासन, अन्य सभी दर्शनों से महती विशेषता रखता है। महावीर प्रभुने अपनी अखंड एवं अनुपम साधना द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर विश्व के सामने जो नवीन आदर्श रखें, उनकी उपयोगिता विश्वशान्ति के लिए त्रिकालाबाधित है। उन्होंने विश्व कल्याण के लिए जो मार्ग निर्धारित किये वे इतने नित एवं अटल सत्य हैं कि उनके बिना सम्पूर्ण आत्मविकास असंभव है।
वीर प्रभुने तत्कालीन परिस्थिति का, जिस निर्भीकता से सामना कर कायापलट कर दिया वह उनके जीवन की एक असाधारण विशेषता है। सर्वजनमान्य एवं सर्वत्र प्रचलित भ्रामक सिद्धान्तों एवं क्रियाकाण्डों का विरोध करना साधारण मनुष्य का कार्य नहीं इसके लिए बहुत बड़े साहस एवं आत्मबल की आवश्यकता होती है । और वह आत्मबल भी महाकठिन साधना द्वारा हीं प्राप्त होता है। भगवान महावीर का साधक जीवन उसका विशिष्ट प्रतीक है। जिस प्रकार उनका जीवन, एक विशिष्ट साधक जीवन था उसी प्रकार उनका शासन भी महती विशेषता रखता है। इस विषय पर इस लघुलेख में संक्षेप से विचार किया जाता है।
वीर शासनद्वारा विश्वकल्याण का कितना घनिष्ठ संबंध है । तत्कालीन परिस्थिति में इस शासन ने क्या काम कर दिखाया ? यह भली भाँति तभी विदित होगा जब हम उस समय के वातावरण से, सम्यक् प्रकार से परिचित हो जायँ । अतः सर्व प्रथम तत्कालीन परिस्थिति का कुछ दिग्दर्शन करना आवश्यक हो जाता है।
जैन एवं मौद्ध प्राचीन ग्रंथों के अनुशीलन से शत होता है कि उस समय धर्म के एकमात्र ठेकेदार प्राण लोग थें, गुरूपद पर वे ही " सर्वे सर्वा" थें। उनकी आज्ञा राजाज्ञा से भी अधिक मूल्यवान समझी जाती थी, राजगुरू भी वे ही थे अतः उनका प्रभाव बहुत व्यापक था। सभी सामाजिक रीतिरस्में एवं धार्मिक क्रियाकांड
श्री अगरचंद नाहटा
उन्हीं के तत्वाधान में होते थे, और इसलिए उनक जातीय अहंकार बहुत बढ़ गया था। ये अपने को सबसे उच्च मानते थे। शूद्रादि जातियों के धार्मिक एवं सामाजिक अधिकार प्रायः सभी छीन लिये गये थे, इतना ही नहीं, वे उनपर मनमाना अत्याचार भी करने लगे थे । यहीं दशा मूक पशुओंकी थी। उन्हें यज्ञयागादि में एसे मारा जाता था मानों उनमें प्राणही नहीं हो। और इसे महान धर्म समझा जाता था। " वेदविदितहिंसा" हिंसा नहीं मानी जाती थी।
इधर स्त्रीजाति के अधिकार भी छीन लिये में पुरुष लोग उनपर जो मनमाना अत्याचार करते थें वे उन्हें निर्जीव की भांति सहन कर लेने पड़ते थे। उनकी कोई सुनाई नहीं थी। धार्मिक कार्यों में भी उनको उचित स्थान नही था अर्थात् स्त्री जाति बहुत कुछ पददलित सी थी ।
यह तो हुई उच्च नीच जातीयवाद की बात इसी प्रकार वर्णाश्रमवाद भी प्रधान माना जाता था। साधनाका मार्ग वर्णाश्रम के अनुसार ही होना आवश्यक समझा जाता था। इसके कारण सच्चे वैराग्यवान व्यक्तियों का भी तृतीयाश्रम के पूर्व सन्यासग्रहण उचित नहीं समझा जाता था ।
इसी प्रकार शुष्क क्रियाकाण्डों का उस समय बहुत प्राय था । यज्ञयागादि स्वर्ग के मुख्यसाधन माने जाते ये एवं शुद्धि की ओर अधिक ध्यान दिया जाता था । अन्तर शुद्धि की ओर से लोगों का लक्ष्य दिनों दिन हटता जा रहा था । स्थान स्थान पर तापस लोग तापसिक बाह्य कष्टमय क्रियाकाण्ड किया करते थे और जनसाधारण को उन पर काफी विश्वास था
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वेद ईश्वर कथित शास्त्र हैं, इस विश्वास के कारण वेदाशा सबसे प्रधान मानी जाती थी। अन्य महर्दियों के मत गौग थे। और वैदिक क्रियाकाण्डों पर लोगों का बहुत अधिक विश्वास था। शास्त्र, संस्कृत भाषा में होने से साधारण जनता उनसे विशेष लाभ नहीं उठा सकती थी।