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________________ જેન યુગ ૫૮ એપ્રિલ ૧૫૦ हैं। जैन धर्म के इस क्षेत्र में विकास का और सनातनी “पारसनाथ पहाड़ी की विशिष्ट पवित्रता कि जिसके हिन्दू धर्म, शैव धर्म और वैष्णव धर्म से उसके संबंधों की कारण भारत के दर दर के स्थानों से प्रति वर्ष दस हजार यात्री खोज का मानभूम का यह क्षेत्र उपयोगी है। यहाँ कुछ यहाँ आया करते हैं, इसलिए है कि इस पर चोवीस में से मूर्तियों के पादपीठों पर कितने ही लेख उपलब्ध हुए हैं। कम से कम दस' तीर्थंकरों को कि जो जैनों की पूजा-उपासना ये अभी तक बराबर पढ़े और मनन नहीं किए जा सके के विषय हैं, निर्वाण प्राप्त हुआ था। इनमें से अन्तिम हैं । लेखों और मूर्तियों के उचित अध्ययन एवम् जैन पाव या पार्श्वनाथ से इस पहाड़ी को इसका दूसरा और संस्कृति के जाने-चीन्हे क्षेत्रों के उत्खनन से देश के इस सुप्रख्यात नाम पारसनाथ पहाड़ी मिला है हालाँकि इसका भाग में पिछले दो हजार वर्षों तक के सांस्कृतिक इतिहास मूलतः नाम समेत शिखर है।" पर पर्याप्त प्रकाश मिल सकता है। "मंदिर जिसमें मूर्ति पर प्रतिष्ठा की प्राचीनतम तिथि है, छोटा-नागपूर जिले के जैन पुरातत्त्वावशेषों के विषय और जो प्राचीनता के महानतम चिह्न कोई भी नहीं में भी कुछ कह देना यहाँ उचित है क्योंकि इस पुस्तिका ___ दिखाता है, ईंटों का बना एक अच्छा भवन है। इस पर का लक्ष्य बिहार राज्य के अनेक जैन विस्मृत पुरातत्त्वावशेषों चूने का पलस्तर ताजा ही हुआ है। इसकी सफेदी प्रति की ओर इतिहासज्ञों, पुरातत्त्वज्ञों, साधारण जनों और वर्ष होती है। इसमें प्रतिष्ठित मूर्ति के पादपीठ पर के विशेषतया जैनों का ध्यान आकर्षित करने का भी है। संस्कृत लेख में इसके मंदिर में प्रतिष्ठित किए जाने का हजारीबाग जिले की पारसनाथ पहाड़ी का शिखरजी का सम्बत् लिखा हुआ है, याने ईसवी १७६८।” मंदिर, पटना जिले की पावापुरी एवम् राजगिरि के मानभूम और सिंहभूम जिलों के अवशेषों को इस मंदिर तो सब सुविख्यात हैं। परन्तु इनके अतिरिक्त सरकारी प्रकाशन में नगण्य स्थान मिला है। डालमी अनेक पुरातत्त्वावशेष और विशेषतः छोटा-नागपुर जिले के अवशेष एकदम ही उपेक्षित रहे हैं। इस विभाग के अथवा पालमा के ध्वंसावशेषों के विषय में यह कहा ही नहीं गया है कि ये जैन मूल के हैं। यह बड़े ही दुर्भाग्य प्राचीन स्मारकों की सूची में भी जो कि सरकार द्वारा की बात है कि पालमा के मंदिरों के खण्डहरों के विषय में १८९६ में प्रकाशित हुई थी, यहाँ के अनेक प्रमुख जैन उनके जैन होने का उल्लेख ही नहीं किया जाए हालाँकि पुरातत्त्वों का नाम तक भी उल्लेख नहीं किया गया है। कुलुहा पहाड़ी का उल्लेख नीचे उद्धृत थोडे से शब्दों में यह अवश्य ही कहा गया है कि भिन्न भिन्न स्थानों में पाद पीठों पर खड़ी और छतों पर भी एकदम नम पुरुषों की ही समाप्त हो गया है। जिन अवशेषों पर टिप्पण किया गया है, उस टिप्पण में जैन धर्म के प्रभाव का कोई भी मूर्तियाँ है जिनकी शिरोभूषा मिस्र देश की सी है, भुजाएँ ऐसी लंबी लटकी हुई हैं कि हाथ घुटनों तक पहुँच गए उल्लेख नहीं है । कुलुहा पहाड़ी के विषय में लिखा गया हैं और हथेलियाँ भीतर की ओर हैं। यद्यपि देवली, सुइस्सा और पकबीरा के अवशेषों के विषय में संक्षेप में "शिलालेख ८वीं से १२वीं शती ईसवी तक के हैं। कहा गया है कि वे जैन मूल के हैं, परंतु बोरम के ये प्रायः एकान्त भावे बौद्धलेख ही हैं। ये सब बहुत ही मंदिर के खण्डहर के विषय में ऐसा नहीं कहा गया है । छर्रा बुरी दशा में हैं। मूर्तिशिल्प भी इसी युग का है और वह के मंदिर के विषय में अस्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि बौद्ध एवम् ब्राह्मणीय दोनों प्रकार का है। यह स्थान प्रायः कुछ मंदिर जैन या बौद्ध थे। अनेक भ्रंश मूर्तियोंवाले अज्ञात सा है । यहाँ तक पहुँच भी कठिन है। इसका उत्सर्गित चैत्य जिनकी मूर्तियाँ बुद्ध की हो या जैन पर्यवेक्षण भी अच्छी प्रकार से नहीं किया गया है। उचित तीर्थंकरों की, गाँव में पड़े हुए हैं। परन्तु इधर-उधर पढ़े पर्यवेक्षण आवश्यक है । अवशेषों की वर्तमान स्थिति और हुए मूर्तिशिल्पों से ऐसा लगता है कि अधिकांश ब्राह्मणीय भावी संरक्षण के विषय में बस इतना ही उल्लेख है कि और उसमें भी विशेषतया वैष्णवीय हैं। उनके सम्बन्ध "वे ऋतु प्रहार से नष्ट हो रहे हैं।" इनके संरक्षण पर तो में मात्र यह किम्वदन्ती है कि ये और उस अंचल के कुछ एक शब्द भी नहीं कहा गया है। पारसनाथ पहाड़ी के जैन मंदिरों ने अवश्य ही इस पुस्तक में कुछ विस्तार से १. पारसनाथ पहाड़ी पर २० तीर्थंकरो का निर्वाण हुआ स्थान पाया है। वहाँ इस के विषय में उल्लेख है कि: हैं १० का नहीं जैसा कि लिखा गया है। (मूल लेखक)
SR No.536283
Book TitleJain Yug 1959
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1959
Total Pages524
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size34 MB
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