________________
જૈન યુગ
५७
એપ્રિલ ૧૯૫૯
और कितनी ही हिन्दुओं द्वारा किसी हिन्दू देवता की प्रतीक मानी जा कर उस रूप में पूजी भी जा रही हैं। बिहार और पश्चिमी बंगाल के नगरों के एवम् पुरुलिया के स्थानीय निवासियों द्वारा अनेक मूर्तियाँ हडप भी ली गई हैं। कितने ही पर्यटक, विशेषतया मोटर पर्यटक, उधर से गुजरते हुए अनेक छोटी छोटी मूर्तियाँ उठा ले गए ऐसा भी कहा जाता है। कुछ को पुजारियों ने अथवा स्थानीय निवासियों ने पाँच पाँच रुपए या ऐसे ही नगण्य मूल्य पर अपनी ही सम्पत्ति समझ कर बेच दिया यह भी कहा जाता है। मानवीय दुराचरण की यह एक अति दुःखद अभिव्यक्ति है कि संस्कृति और कला की प्रतीक ऐसी मूर्तियाँ व्यापार की अथवा लुब्धक कलादस्युओं की शिकार बन जाएँ। इस क्षेत्र के पर्यटनों में इस लेखक को यह सूचना मिली थी कि लाधुरका (पुरुलिया-हूरा सड़क पर का एक बड़ा गाँव) के आसपास अनेक पुरातत्त्व सड़क के पास ही पूजा के लिए की गई खुदाई में सहज ही जो पाए गए थे उन्हें कुछ व्यक्तियों ने तुरत ही हड़प लिया था।
कलासगढ़ जिसका कि महत्त्व कोयले की खानों के कारण इन दिनों बहुत ही बढ़ गया है, एक समय जैन कला और संस्कृति का केन्द्र था। कलासगढ़ रेल स्टेशन के दक्षिण की ओर करीब आधा मील दूर, दामोदर नदी के दोनों ओर कई उपेक्षित प्राचीन जैन मूर्तियाँ हैं। स्थानीय सूचनाओं के अनुसार इनमें से कुछ लोप भी हो गई हैं। नदी के दक्षिण में एक बृहद् जैन नम मूर्ति और कई छोटी छोटी मूर्तियाँ हैं। वहाँ लगभग १६ मंदिर हैं जिनमें से कुछ जैन मंदिरों के से हैं। इन मंदिरों में से एक में एक लेख भी है और उसकी दो पंक्तियाँ पढ़ी भी जा चुकी हैं। एक पंक्ति में श्रावकों के संरक्षण का उल्लेख है और दूसरी में यह कि मंदिर जैनियों ने बनवाए थे।
दामोदर नदी के तटवर्ती धनबाद जिले के चेचगढ़ गाँव में अनेक ध्वंसावशेष और मंदिर हैं । सब से बड़े मंदिर के पास ही और पूर्व दिशा में उपनदी के पश्चिमी तटस्थित एक शिला के ताकरूप उद्गत अंश पर दो पंक्तियाँ लेख रूप लिखी हैं जिनमें से पहली में चिचितागढ़ का और दूसरी में श्रायकी रछबंसिद्र का उल्लेख है। वेगलर ने इस क्षेत्र का भी दौरा किया था और अपनी प्रतिवेदना में उसने निश्चयतापूर्वक लिखा था कि वहाँ जैन या श्रावकी मंदिर थे । भामण्डल सहित बैठी मूर्ति-उत्कीर्णित द्वारपिण्डी
इसलिए सम्भवतया जैन मंदिर का ही अवशेष है। परन्तु यह आश्चर्य की ही बात है कि इस क्षेत्र का सब से बड़ मंदिर शैवमंदिर है। यह मंदिर पीछे बनाया गया होगा ऐसा लगता है। इस बड़े मंदिर के कुछ ही पूर्व की ओर इस क्षेत्र के दूसरे बड़े मंदिर के अवशेष हैं। दोनों ही मंदिर मूर्तिशिल्प द्वारा खूब ही सजे हुए हैं। इन मूर्तिशिल्पों में जैन प्रभाव का अभाव नहीं है। यह क्षेत्र एक समय जैन प्रभाव में था ही यह बिलोंजा के आसपास के गाँवों में मिली कुछ जैन मूर्तियों से भले प्रकार प्रमाणित होता है । जब बेगलर ने सन् १८७२-७३ में बिलोजा की यात्रा की थी उसे वहाँ एक नग्न जन मूर्ति मिली थी जो कि चेचगाँवगढ़ के ध्वंसावशेषों में से लाई गई कही जाती थी। ___ आश्चर्यजनक बात तो यह है कि मानभूम जिले में जैन पुरातत्त्व इतनी प्रचुरता में खुले और उपेक्षित देखे जाते हैं। जितनी ही अधिक पूछताछ के ई वहाँ करता है उतने अधिक अवशेषों का उसे पता लगता जाता है। बारभूम परगने का प्रायः अप्रसिद्ध गाँव पचनपुर भी प्राचीन काल में स्पष्टतया ही जैनों का एक महान् केन्द्र था। वहाँ कितने ही ध्वंस मंदिर और टूटेफूटे पुरातत्त्व हैं। इन मंदिरों में से कुछ में उत्कृष्ट तक्षण काम हुआ हुआ है। पालवंश का प्रभाव इन पर भी स्पष्ट दीख पड़ता है। मंदिर की सभी दिशाओं में तीर्थंकरों की क्षतविक्षत मूर्तियाँ हैं। अनारा रेल स्टेशन से ४ मील दूरस्थ छोटे से गाँव पार में भी कुछ जैन पुरातत्त्व हैं, परन्तु अभी तक इस क्षेत्र में कोई खोज नहीं हुई है। इस क्षेत्र के कुछ पुरातत्त्व कलकत्ता संग्रहालय को भेजे गए थे जो वहाँ सुरक्षित हैं। इनमें ही एक २ फुट ऊँची श्री शांतिनाथजी की खड्गासन की प्रतिमा है। यह प्रतिमा कुछ कुछ क्षत है।
सम्भवतः इसलिए कि जैन मूर्तियाँ जिनमें से अनेक अभी तक भी साबुत हैं, वृक्षों के नीचे अथवा ऐसे स्थानों में जहाँ कि कभी मंदिर होंगे, पड़ी हैं, उनकी ओर किसी ने कोई ध्यान नहीं दिया है । जो मूर्तियों के समूह इस लेखक ने जिले के अनेक स्थानों में उपेक्षित पड़े देखे थे, वे सहज ही यह स्मरण दिलाते हैं कि यदि ये सब किसी खुदाई में पाई गई होती तो उनकी उपलब्धि का शोरगुल देश में मच गया होता। परन्तु इन्हें राज्य का कोई भी संरक्षण प्राप्त नहीं होने से ये छूट के साथ निजी गृहों या मंदिरों की भींतों की चुनाई में प्रयोग की जा रही