________________
જૈન યુગ
५८.
એપ્રિલ ૧૯૫૯
बडे तालाव श्रावकों द्वारा बनाए गए थे कि जिन्हें यहाँ सराक कहा गया है।
यह संकेत करते हुए कि छोटा-नागपुर विभाग के प्राचीन स्मारकों की सन् १८९६ में प्रकाशित सरकारी सूची में जैन मंदिरों और अन्य जैन अवशेषों की सूचना बिलकुल नगण्य एवम् कुछ भ्रामक है, इसके बनानेवालों को इसका दोषी नहीं कहा जा रहा है। सन् १८५७ से पहले की कई सदियों से ही जैन पुरातत्त्वों की उपेक्षा होती रही थी जिससे सहज ही यह समझ में आता है कि बुचानन के यात्राविवरणों अथवा बेगलर के वृत्तान्तों में क्यों इनकी इतनी संक्षिप्त सूचना है।
छोटा-नागपुर जिले में हो या मानभूम, सिंहभूम अथवा अन्य किसी क्षेत्र में सर्वत्र जैन धर्म की कहानी की एक रोचक पृष्ठभूमि है। इसमें कोई भी संदेह नहीं है कि मानभूम और सिंहभूम जिला का भौगोलिक स्थान बिहार से उड़ीसा जाने के राजमार्ग पर होने से ही उनमें जैन धर्म के प्रसार को इतना प्रोत्साहन प्राप्त हुआ था। परन्तु इन क्षेत्रों में इस धर्म के प्रसार का कारण राज्य सहाय भी विशेष रूप से था। राजा बिम्बिसार, राजा खारवेल ही नहीं, परन्तु राष्ट्रकूट एवम् चंदेले राजवंशों के राजा कि जिनने इस क्षेत्र पर राज्य किया था, सभी जैन धर्म के सक्रिय सहायक यदि नहीं थे तो भी वे सब उसके प्रति पूर्ण सहानुभूति रखनेवाले थे ही। और इस सहानुभूति का लाभ इन प्रान्तों में जैन धर्म के प्रसार को अवश्य ही मिला। परन्तु इस विषय में एक दूसरी बात भी कही जाती है और वह यह कि मानभूम में रहनेवाले ब्राह्मणों में एक ऐसा समूह है जो अपने को पच्छिम ब्राह्मण कहता है
और ये पच्छिम ब्राह्मण वर्धमान महावीर के कुल के कहे जाते हैं। इस भाग में बसनेवाले आर्यों के ये ब्राह्मण अपने को प्रथम पुरुष मानते हैं। इन ब्राह्मणों ने जैन धर्म के प्रति सहानुभूति रखनेवाले राजाओं और उनके राज्यपालों को उदारता की जैनधर्म प्रसार में पूरा पूरा लाभ उठाया है यह भी संभव है।
तथ्य जो भी हो, परन्तु छोटा-नागपुर विभाग में महावीर के अपने धर्मप्रसार के वैयक्तिक प्रयत्नों के पश्चात् उसका प्रचार पाते रहने की बात समझ में आती है । परन्तु इस विभाग में फिर जैन धर्म का ह्रास किस कारणों से हुआ और विशेष कर उसके मंदिरों व मूर्तियों का नाश कैसे हुआ? इसका विचार किया जाना आज
आवश्यक है। क्यों विनती आवश्यक है। क्यों कितनी ही सदियों तक यहाँ जैन प्रायः रहे ही नहीं ? इसलिए इतिहासज्ञों के लिए यह एक अति रोचक खोज का विषय है जिसकी ओर उनमें से किसी को प्रगति करना चाहिए और पता लगाना चाहिए कि छोटा-नागपुर जिले में और विशेष कर मानभूम में भिन्न भिन्न धर्मों का विकास और अन्ततः परस्पर मिश्रण कब
और कैसे हो गया ? ऐसा अनुमान किया जाता है कि राजेन्द्र चोला देव के अभियान में आनेवाले चोला सैनिकों ने इधर आते और बंगाल के महिपाल को पराजित कर लगभग १०२३ ई० में इधर से लौटते समय मानभूम जिले के जैन मंदिरों और मूर्तियों को विध्वंस किया था। यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि पाण्ड्य धर्मांध मूर्तिभंजक थे। फिर लिंगायत शैवों के इस प्रान्त में उद्भव और प्राबल्य ने भी यहाँ से जैन धर्म के ह्रास और विनाश में योगदान दिया। इस धर्म का ह्रास उस समय तक प्रायः समाप्त हो चुका था जब कि तेरहवीं सदी ईसवी में मानभूम जिले में अनेक प्राचीन राजपूत कबीले आए और उनने अपने अपने राज्य स्थापित कर लिये। काशीपुर, पटकुम आदि जैसे प्रमुख जमींदार उन्हीं कबीलों में से है। इन कबीलों के साथ ही धर्म के अनेक सम्प्रदाय आए जिनका प्रचलित धर्मों से संघर्ष हो कर मिश्रण हुआ। कुछ समय पश्चात् यहाँ तान्त्रिक महायान शवधर्म ने अपना अड्डा जमा लिया। परन्तु फिर जल्दी ही मुगल युग के अन्तिम समय में यहाँ ऐसा युग आया कि जब यहाँ ही नहीं अपितु अधिकांश धर्मों ने सारे भारतवर्ष में ही अपना पृथक व्यक्तित्व या हस्ति भुला कर उस परम उदार हिंदूधर्म को जन्म दिया कि जिसने सभी सम्प्रदायों को अपना लिया और आस्तिकों और नास्तिकों के अनेक दलों को अपने में प्रायः आत्मसात कर लिया। पस जैन धर्म भी प्रायः हिन्दू धर्म की छाया में आ गया और उसके तीर्थंकरों की मूर्तियाँ भैरोनाथ, हर-पार्वती आदि आदि नामों से खुले पूजी जाने लगीं। फिर मानभूम और सिंहभूम जिलों में वैष्णव सम्प्रदाय ने अड्डा जमाया। महाप्रभु शिवराम गोस्वामी (आरा-आद्रा के) और उनके दक्षिणी सहयोगी त्रिलोचन गो-स्वामी ने इस मानभूम की धर्म-उर्वर भूमि में वैष्णवधर्म का खूब ही प्रचार-प्रसार किया। इनने पंचकोटराज को जो कि इस जिले का प्रमुख जमींदार या सामन्त था, सन् १८५७ ई. के महान् आन्दोलन के कुछ वर्ष पूर्व ही शाक्तधर्म छुड़ा कर वैष्णवधर्म अंगीकार करा दिया। ये ही कदाचित् कुछ