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જૈન યુગ
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એપ્રિલ ૧૯૫૯
दूर एक वृक्ष के नीचे एक नग्न जैन मूर्ति मस्तक पर नागफणी छत्रवाली है। इस क्षेत्र की शोध-खोल अवश्य ही अनेक पुरातत्त्वावशेष प्रकट करेगी यही कहा जा सकता है।
जब बेगलर देवली के निकटवर्ती गाँव सुइस्सा में गया था तब उसने वहाँ बटवृक्ष के नीचे मूर्तियों का एक संग्रह देखा था। उन मूर्तियों के विषय में वह कहता है कि
"वृक्ष के नीचे संगृहीत मूर्तियाँ जैन और ब्राह्मणीय हैं। उनमें से मुख्य मुख्य नीचे लिखे नामों से" आज प्रसिद्ध
हैं और एक तीसरा टुकड़ा ईटों के एक ढेर में से खोज निकाला गया था। तीनों टुकड़ों को जोड़ कर ऋषभदेव की एक सुन्दर मूर्ति वहाँ निकल आई है।
जैन मंदिरों के ध्वंसावशेषों का दूसरा प्रमुख समूह बारा-बाजार से पश्चिम २५ मील दूर डालमी में पाया जाता है। डालमी सुवर्णरेखा नदी के तट पर स्थित एक छोटा सा गाँव है। यहाँ बहुत टीबे हैं-कुछ पाषाण के तो कुछ ईटों के। बेगलर के अनुसार जैन मंदिर तो प्राचीन नगर के एकदम उत्तरी सिरे पर ही एकान्त भावे हैं। डालमी एक प्राचीन स्थान है।
बेगलर को पूर्ण विश्वास हो गया कि यह क्षेत्र एक समय जैनों के प्राधान्य का केन्द्र था। और वहाँ के जैन प्रभाव का स्थान कालान्तर में हिन्दूधर्म-प्रभाव ने ले लिया था। वह कहता है कि मूर्तियों में से कुछ तो स्पष्टतया जैन हैं और यह बहुत ही सम्भव प्रतीत होता है कि और भी मूर्तियाँ जिनके विषय में कुछ संदेह है, जैन हैं। इसलिए नवीं दसवीं शती ईसवी में यह जैनों का एक प्रमुख स्थान होना चाहिए और ११वीं सदी के लगभग हिन्दुधर्म उसका उत्तराधिकारी बन गया होगा (बंगाल प्रान्त की यात्रा की प्रतिवेदना, आर्चियालोजिकल सर्वे
ऑफ इण्डिया, भाग ८ सन् १८७८)। इस क्षेत्र में दोनों धर्मों का मिश्रण हुआ था इसकी साक्षी यहाँ मिलनेवाले सनातन हिन्दूधर्मी पुरातत्त्वावशेषों से भी मिलती है। यह एक बड़े दुर्भाग्य की बात ही है कि इस स्थान की जैन मूर्तियाँ सब की सब प्रायः लुप्त हो गई हैं।
डालनी से कुछ मील दूर देवली नामक एक छोटा सा गाँव है। यहाँ भी प्राचीन मंदिरों का एक समूह है और वे सब जैन मंदिर थे ऐसा ही लगता है। सब से बड़े मंदिर के गर्भगृह में तीर्थकर अरनाथ की मूर्ति स्वस्थाने ही विराजमान है। परन्तु हिन्दू सर्वमतगुणग्राहकत्व ने इसे अनेक हिन्दू देवताओं में की एक होना घोषित कर दिया है और इसलिए हिन्दू ही इसकी पूजा अब करते हैं। यह मूर्ति तीन फुट ऊँची है और एक पादपीठ पर आसीन है। पादपीठ पर उत्कीर्णित मृग और शीर्ष पर तीन नग्न मूर्तियों की दोनों ओर दो पंक्तियाँ स्पष्टतः उसके मूलतया जैन होने का विश्वास दिलाती है। मुख्य मंदिर, जो कि आज ध्वस्त दशा में है, में एक गर्भगृह, एक अन्तराल,
और एक महामण्डप है। इस मुख्य मंदिर के बाजू में कितने ही छोटे छोटे मंदिर भी हैं। यहाँ से आधा मील
मोनसा: सर्पचिह्नवाली एक नन जैन मूर्ति । शिव : वृषभचिह्नवाली नग्न जैन मूर्ति । शिव : चारों दिशाओं पर चार नग्न आकार मूर्तिवाला
एक उत्सर्गित (वोटिव) चैत्य, स्पष्टतः जैन । शंखचक्र : विष्णु चतुर्भुज की मूर्ति । पार्वती : सिंह पर बैठी एक स्त्रीमूर्ति ।
इनके अतिरिक्त दो और छोटी जैन मूर्तियाँ है... वृक्ष के नीचे एक स्त्री जो साल वृक्ष के नीचे मरुदेवी माता का प्रतीक हो ऐसा मैं मानता हूँ। एक वृक्ष के नीचे दुसरी स्त्री जिसके मस्तक के चारों ओर पाँच बौद्ध या जैन मूर्तियाँ वृक्ष की शाखाओं पर बैठी हैं । प्रत्येक पक्ष की ओर हाथी और घोटकमुख दो मनुष्यों की चार चार पंक्तियाँ हैं । स्त्री मूर्ति के मस्तक के चारों ओर फूलों के गुच्छे और फल लटक रहे हैं (भाग ८, आर्चि. सर्वे ऑफ इंडिया)। फिर वहाँ एक आहता है जिसके चारों कोनों पर चार और केन्द्र में एक मंदिर है । केन्द्रस्थ मंदिर बहुत बड़ा है और उसमें सुन्दर सुन्दर मूर्तियाँ हैं। यह मंदिर निःसंदेह ही प्राचीन है। यह दुःखान्त घटना है कि हमारी उपेक्षा ने कलादस्युओं एवम् कलाविध्वंसकों को उत्साहित किया जिसके फलस्वरूप जो मूर्तियाँ बेगलर ने वहाँ देखी थीं उनमें से कुछ आज उस स्थान पर नहीं हैं।
यह भी दृष्टव्य है कि मानभूम जिले के भिन्न भिन्न स्थानों में अनेक शिलालेख भी बिखरे पड़े हैं। अभी अभी ही पुरुलिया के ऐतिहासिक प्रतिष्ठान द्वारा इन्हें संग्रह करने और पढ़ने का प्रयत्न किया जाने लगा है। करचा, भवानीपुर, पालमा, अनाई, बोरुडीह, कुम्हरी, कुमारदग, चालियाना, सीमागुण्डा और जैदा गाँवों में जो कि सभी मानभूम सदर में हैं, शिलालेख उपलब्ध हैं।