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________________ महान दार्शनिक १४४४ ग्रंथकर्ता आचार्य श्रीहरिभद्रसूरि मुनिश्री जिनविजयजी एक बहुत ही महत्त्व की ऐसी और बात है जो बहुत कम लोग जानते हैं। वह यह है कि इस भूमि में आज से कोई १२०० वर्ष पहले आप ही के जैसे एक ऐसे महान् ज्ञानी और महान् दार्शनिक साधुशिरोमणि ने विचरण किया था, जिसकी दार्शनिकता और तत्त्वज्ञता की तुलना में आ सके, वैसा शायद ही कोई अन्य शास्त्रकार हुआ हो । अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त तत्त्व का रहस्य और निष्कर्ष बतानेवाला उनके जैसा महाज्ञानी, भारतीय साहित्य क्षेत्र में विरला ही दृष्टिगोचर होगा। समूचे भारतीय वाङ्मय में, सर्व दर्शनों का समुच्चय और समन्वय की दृष्टि से अध्ययन और आलेखन करनेवाला उनके जैसा कोई अन्य दार्शनिक अद्यावधि ज्ञात नहीं। यही एक ऐसे दार्शनिक हुए जिनने चार्वाक मत अर्थात् नास्तिकवाद को भी एक तत्त्वदर्शन के रूप में मानकर षड् दर्शन की पंक्ति में बिठाने का समादर किया । षड्दर्शन अथवा सर्वदर्शन समुच्चय नामक विशिष्ट ग्रन्थ की रचना द्वारा उनने अपना सर्वदर्शन समदर्शितत्त्व का अद्वितीय परिचय दिया है । इसी तरह का शास्त्रवार्ता समुच्चय नाम का एक और महान ग्रंथ बनाकर उसमें सर्वशास्त्रों की बहुत ही माध्यस्थ्यभरी शैली में अत्यन्त तात्त्विक आलोचना की है । अहिंसा और अनेकान्त तत्त्वकी मीमांसा करनेवाले अनेक छोटे-बड़े ग्रन्थ बनाये जिनमें भिन्न-भिन्न प्रकार से और भिन्न-भिन्न दृष्टि बिन्दुओं से इन तत्त्वों की मार्मिक आलोचना- प्रत्यालोचना की गई है। प्राकृत भाषा का एक सर्वश्रेष्ठ कथाग्रन्थ उनकी अन्यतम महान् देन है। * सर्वोदय साधना आश्रम चन्देरिया में श्री विनोबाजी के स्वागत निवेदन में से । धर्मतत्त्व का व्यावहारिक आकार क्या होना चाहिये और उसके आचरण में कैसे नियमोपनियम लाभदायक हो सकते हैं इसके लिये 'धर्मबिंदु ' नामक विशिष्ट शास्त्र की रचना की । आध्यात्मिक शक्ति का विकास योगमार्ग की प्रक्रिया द्वारा होता है। योगसाधना में किस दृष्टि का अनुसरण करना चाहिये, इसके लिये योगदृष्टि समुच्चय, योगशतक, योगबिंदु आदि बहुत ही विलक्षण और प्रौदतत्त्व दर्शक ग्रन्थों की रचना की । अनेकान्तवाद का दृष्टिकोण और स्वरूप समझाने के लिये अनेकान्तवाद प्रवेश, अनेकान्तजयपताका आदि उच्च कोटि के तर्कपद्धति पूर्ण शास्त्रों की रचना की । हिंसा, मद्यपान, मांस भक्षण, मैथुनकर्म, कुरूढिप्रवृत्ति, धर्ममूढता आदि अनेक प्रकार के समाजविरोधी तत्त्वों के निरसनरूप में संस्कृत - प्राकृत भाषा में छोटे-बड़े अनेक प्रकरण ग्रन्थ एवं निबन्ध आदि बनाये । इस प्रकार अपने जीवन में उनने १४४४ ग्रन्थों की रचना की जो भारतीय वाङ्मय के शास्त्रकारों के इतिहास में, सर्वथा अद्वितीय माने जाने योग्य एक महत् तथ्य है । ૫૧ उन महान् दार्शनिक का नाम था आचार्य हरिभद्रसूरि । पूर्वावस्था में चित्तौड़ के राजघराने के वे राजपुरोहित थे । चतुर्दश विद्या के पारगामी और सर्व शास्त्रों के रहस्यवेदी महाब्राह्मण थे। बाद में एक साक्षात् शीलमूर्ति जैन आर्या, याकिनी महत्तरा नामक साध्वी की प्रशमरसपरिपूर्ण जीवनचर्या के प्रभाव से प्रभावित होकर वे उस महासाध्वी के धर्मपुत्र बन गये । उनके विषय का साहित्य और इतिहास विविध रूप में मिलता है । यूरोप के और इस देश के कई प्रखर पंडितों ने उनके अनेकानेक ग्रंथों का संपादन- प्रकाशन आदि कार्य किया है और आज भी कर रहे हैं। मैंने भी इनके विषय में कुछ महत्त्व के निबन्ध लिखे हैं; और कुछ ग्रन्थों को प्रकट भी किया है। ERSINHAKTARA
SR No.536283
Book TitleJain Yug 1959
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1959
Total Pages524
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size34 MB
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