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જૈન યુગ
५०
એપ્રિલ ૧૯૫૯
भी
देव को किस
एसा निशान
थे कि यह तो
ल्प का अनुसरण
३३५४, ३३५८, ३७००, ४०२३, ४११२ चूर्णि के साथ । परिव्राजकों के उपकरणों का भी उल्लेख है-मत्त, दगवारग, गडुअअ, आयमणी, लोट्टिया, उल्लंकम, वारअ, चडुयं, कव्वय-गा. ४११३।।
यक्षपूजा (गा. ३४८९), रुद्रधर (६३८२) तथा मल्लीतीर्थ (गा. २३४३) का भी उल्लेख है। भृगुकच्छ के एक साधुने दक्षिणापथ में जाकर वासुदेव को किस प्रकार भाला लगा और मर गये तथा उसके स्मरण में मल्लीतीर्थ की रचना हुई यह कथा एक भागवत के समक्ष कही तो वह रुष्ट हुआ और श्रमण को मारने को तैयार हुआ। तब ही शांत हुआ जब वह स्वयं मल्लीतीर्थ देख आया। अन्त में अपने बुरे विचार के लिये उसने क्षमा याचना की।
जैनोंने उक्त मतांतरों को लौकिक धर्म कहा है; वे अपने मतको लोकोत्तर मानते रहे। लौकिक महाभारत रामायणादि शास्त्रों की असंगत बातों की हँसी भी उडाई है और उसके लिये चूर्णि में पाँचधूतों की एक रोचक कथा दी गई है (नि.गा.२९४६) । इतना ही नहीं विरोधी मत को अनार्य भी कह दिया है (५७३२)।
जैनमतमें भी जो परस्पर मतभेद के कारण सम्प्रदायभेद हुए उन्हें 'निह्नव' कहा गया है और उनका क्रमशः इतिहास दिया हुआ है-(गा. ५५९६-५६२६)।
'पासंड" शब्द निशीथ भाष्यतक धार्मिक सम्प्रदाय के अर्थमें प्रचलित रहा है। उसमें जैन और जैनेतर-सभी का समावेश होता था।
निशीथ में कई जैनाचार्यों के विषय में भी ज्ञातव्य सामग्री मिलती है। आर्य मंगु और समुद्र के दृष्टान्त आहार में गृद्धि और विरक्ति के लिये दिये गये हैं (गा. १११६)। स्थूलभद्र के समय तक सभी जैनश्रमणों का आहार-विहार साथ था अर्थात् सभी श्रमण सांभोगिक थे। स्थूलभद्र के दो शिष्य थे-आर्य महागिरि और आर्य सुहत्थी। आर्य महागिरि ज्येष्ठ थे किन्तु स्थूलभद्र ने आर्य सुहत्थी को पट्टधर बनाया। फिर भी ये दोनों प्रीतिवश साथ ही विचरण करते रहे। सम्प्रतिराजाने भक्तिवश अपने पूर्वभव के गुरु जानकर सुहत्थी के लिये आहारादि का प्रबंध किया। कुछ दिन तक इस प्रकार सुहत्थी और उनके शिष्य राजपिंड लेते रहे । आर्य महागिरि ने उन्हें सचेत किया किन्तु माने नहीं। अतएव उन्होंने उनके साथ आहार-विहार करना छोड दिया अर्थात् असांभोगिक बना दिया। बाद में
सुहत्थी ने मिथ्या दुष्कृत दिया तब दोनों का पूर्ववत् व्यवहार शुरु हुआ। इस प्रकार तब से श्रमणों में सांभोगिक
और विसंभोगिक ऐसे दो वर्ग होने लगे (नि. गा. २१५३ -२१५४ की चूर्णि)। यही भेद आगे चलकर श्वेताम्बर और दिगम्बर रूप से दृढ हुआ ऐसा विद्वानों का कहना है ।
आर्यरक्षित ने उपाधि में मात्रक (पात्र) की अनुज्ञा दी उसको लेकर भी संघ में काफी विवाद खडा हुआ होगा ऐसा निशीथ भाष्य को देखने पर लगता है। कुछ लोग यहां तक कहते थे कि यह तो तीर्थकर की आज्ञा का भंग है। किन्तु निशीथ भाष्य जो स्थविर कल्प का अनुसरण करनेवाला है तदनुसार तो ऐसा कहनेवाले को ही प्रायश्चित्त आता है। आर्यरक्षित ने देशकाल देखकर जो किया उचित ही किया और तीर्थकर की आज्ञा का भंग नहीं किया है। जिस पात्र में खाना उसी पात्र का उपयोग शौच में भी करना यह लोकविरुद्ध था। अतएव गच्छवासियों के लिये लोकाचार की दृष्टि से दो पृथक पात्र रखना आवश्यक हो गया था-ऐसा प्रतीत होता है
और उसी आवश्यकता की पूर्ति आचार्य आर्यरक्षित ने की (नि० गा० ४५२८-से)।
लाटाचार्य (११५०), आर्यखपुट (२५८७), विष्णु (२५८७), पादलिप्त (४४६०), चंद्ररुद्र (६६१३), गोविंद वाचक (२७६६, ३४२७, ३५५६) आदि का भी उल्लेख निशीथ भाष्य-चूर्णि में मिलता है। ___पांच प्रकार के 'पोत्थय' पुस्तकों का उल्लेख है। वे ये हैं-गंडी, करछभी, मुट्ठी, संपुड तथा छिवाडी'। इनका विशेष परिचय मुनिराज श्री पुण्यविजयजी ने 'भारतीय जैन श्रमण संस्कृति और लेखनकला' इस निबंध में (पृ. २२-२४) दिया है।
इन पांचों प्रकार के पुस्तकों का रखना निषिद्ध था, क्योंकि उनके भीतर जीवों की संभावना होने से उन जीवों के घात की संभावना थी (नि. गा. ४०००) किन्तु जब यह देखा गया कि ऐसा करने में श्रुत का ही हास होने लग गया तब यह अपवाद करना पडा कि कालिक श्रुतअंग ग्रंथ तथा नियुक्ति के संग्रह की दृष्टि से पांचों प्रकार के पुस्तक रखे जा सकते हैं-(नि. गा. ४०२०)।
१.नि. गा० १४१६, ४००० चू. बृ० गा० ३८२२ टी०
४०९९ । २. 'कालियसुर्य' चारादि एक्कारस अंगा-नि० गा.
६१८९ चू०।
१ नि. गा. ६२६२ ।