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श्रमण-ब्राह्मण
श्री दलसुख मालवणिया
निशीथचूर्णि उस काल के श्रमण और ब्राह्मणों के पारस्परिक सामयिक और असामयिक *। ये सिद्धपुत्र नियमतः संबंध की और श्रमणों के विषय में भी महत्त्वपूर्ण सामग्री शुक्लांबरधर होते थे। उस्त्रे से मुंडन कराते थे और शिखा उपस्थित करती है। अतएव उस सामग्री का संकलन मैंने रखते या नहीं रखते थे। ये शुक्लाम्बरधर सिद्धपुत्र यहाँ नमूने के तौर पर कर दिया है, जिससे कि जिज्ञासु वर्ग संभवतः 'सेयवड' वर्ग से पतित या उससे निम्न श्रेणी इस दृष्टि से उसका अध्ययन करना चाहे तो उसे कई नये के लोग थे और उनकी बाह्य वेशभूषा प्रायः साधु की तरह तथ्य प्राप्त होंगे।
थी (नि. जा. ५८६)-ऐसा प्रतीत होता है। आज जो श्रमण और ब्राह्मण का परस्पर वैर प्राचीन काल से चला श्वेताम्बरों में साधु और यति वर्ग है, उन दोनों वर्गों के आता था वह निशीथ की टीकोपटीकाओं के काल में भी पुरोगामी ये दो वर्ग हों तो आश्चर्य नहीं। सिद्धपुत्रों के था (नि. जा. १०८७ चू.)। अहिंसा के अपवाद की चर्चा वर्ग से निम्नश्रेणी में 'सावग' का वर्ग था। ये 'सावग' के समय श्रमणद्वारा ब्राह्मणों की राजसभा में की गई हिंसा की -श्रावक दो प्रकार के थे: अणुव्रती और जिन्होंने चर्चा निशीथ में है (गा.४८७)। ब्राह्मणों के लिये चूर्णि में अणुव्रतों का स्वीकार नहीं किया है (नि. गा. ३४६ चू.)। प्रायः सर्वत्र धिज्जातीय (नि.गा. १९,३२२,४८७,४४४१) अणुव्रती को 'देश सावग' और अनणुव्रती को 'दसणसावग' शब्द का प्रयोग किया गया है। जहाँ ब्राह्मणों का प्रभुत्व ___कहा जाता था (नि. गा. १४२ चू.)। हो वहाँ अपवाद से श्रमण यह झूठ बोले कि हम कमंडल में मुंडित मस्तक का दर्शन अमंगल है ऐसी भावना (कमदग) भोजन करते हैं-ऐसी अनुज्ञा है (नि. गा. (नि. गा.२००५ चूर्णि) लोगों में हो गई थी-यह भी श्रमणः३२२)। श्रमणों में भी पारस्परिक सद्भाव नहीं था द्वेषका ही फल समझना चाहिए। (नि. सू. २.४०)। बौद्ध भिक्षुओं को दान देने से लाभ श्रमणों में-निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गेरु, और नहीं होता है ऐसी मान्यता थी, किन्तु ऐसा कहने से यदि आजीवकों का समावेश होता था (नि. गा. ४४२०,२०२० वह भय हो कि बौद्ध लोग मारेंगे तो अपवाद से यह कह दे चू.)। निशीथभाष्य और चूर्णि में अनेक मतों का उल्लेख कि दिया हुआ दान व्यर्थ नहीं जाता (नि. गा. ३२३)। है जो तत्काल में प्रचलित थे और जिनके साथ जैन
आज के श्वेताम्बर संभवतः उन दिनों लोगों में भिक्षुओं की टक्कर होती थी। उनमें बौद्ध, आजीवक और 'सेयवड' या सेयभिक्खु (नि. गा. २५७३ चू.) के नाम ब्राह्मण परिव्राजक मुख्य थे। बौद्धों के नाम विविध रूप से से प्रसिद्ध रहे होंगे (नि. गा. २१४, १४७३ चू.)। मिलते हैं-मिक्खुग, रत्तपड, तच्चणिय, सक्क, आदि। साधुवर्ग और श्रमणवर्ग के बीच पासत्था अर्थात् शिथिला- ब्राह्मण परिव्राजकों में उलूक, कपिल, चरक, भागवत चारी साधुवर्ग तो था ही। उसके अतिरिक्त सारूवी और तापस, पंचग्गित्तावस, पंचगव्वासणिया, सुईवादी, दिसापोसिद्धपुत्र-सिद्धपुत्रियों के वर्ग भी थे।
क्यिय, गोव्वया, ससरक्ख आदि मुख्य हैं। इनके अतिरिक्त साधुकी तरह वस्त्र और दंड को धारण करनेवाले, कच्छ कापालिक, वैतुलिक, तडिय कप्पडिया आदि का भी उल्लेख नहीं बाँधनेवाले सारूवी होते थे। वे भार्या नहीं रखते थे है-देखो, नि. गा. १, २४, २६, ३२३, ३९७, ४९८, (नि. गा. ४५८७; ५५४८, ६२६६)। उनमें चारित्र १४०४, १४४०, १४७३, १४७५, २३४३, ३३१०, नहीं होता था, मात्र साधुवेश था (नि. गा. ४६०२
* अभार्यक को मुंड भी कहते थे-५५४८ च.। चू.)। सिद्धपुत्र गृहस्थ होते थे और वे दो प्रकार के थे
१ नि. गा. ३४६ च गा. ५३८ चू.। गा. ५५४८ चू. । (१) दंडकारण्य की उत्पत्ति के मूल में श्रमण-ब्राह्मण वैर गा. ६२६६, बु. गा. २६०३ । गा. ४५८७ में शिखा का कारण है-(निशीय गा. ५७४०-३)।
विकल्प नहीं है। ४९