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________________ જૈન યુગ એપ્રિલ ૧૯૫૯ उदाहरण रखा है। भगवान् हरिभद्रसूरि जो कि इस मध्य युग के महाविद्वान् और तार्किक (Dynamic force of logic and philosophy) माने गये हैं स्पष्ट फरमाते वरूप का यथार्थ अवलोकन कर उपर्युक्त सार्वभौमिक सत्य को जगत् के सामने प्रकाशित किया। इसमें किसी भी प्रकार से उनका मतकदाग्रह और दम्भ नहीं था। यह उनके वीतरागता का लक्षण है और तीर्थकर होने का सबल प्रमाण है । तात्पर्य यह है कि जैसा पदार्थ-विज्ञान का स्वरूप है वैसा ही प्रतिपादन है। मुझ अल्पज्ञ के लिये उपरोक्त महातत्त्व का भावार्थ पूर्णतया समझाना तो सागर को गागर (छोटे घडे) में समावेश करने जैसा विषय है। फिर भी विचारक और वैज्ञानिक वर्ग मर्यादित मत्यनुसार संक्षेप अर्थ यह करते हैं कि "Permanence underlying change" यानी पदार्थ अपने स्वभाव में कायम (नित्य) रहते हुए भी अनेक अस्वस्थाओं (पर्यायों) में परिवर्तत होता रहता है। वास्तव में तो इस महावाक्य का यथार्थ स्वरूप महाप्रभु के समान सर्वज्ञ पद पर पहुँचे तब ही समझा जा सकता है। उन ध्यानधीर और ज्ञानगम्भीर महान् तत्त्वज्ञ का हरएक सिद्धान्त अतिगहन और सारगर्भित था। धर्म की व्याख्या करते हुए "वत्थुसहावो धम्मो" इस एक छोटे से सूत्र में इतना गम्भीर रहस्य भर दिया है कि वर्षों तक भी इसपर विचार किया जावे तो अन्त नहीं आ सकता। मैं न तो उनके प्रवचन की व्याख्या कर सकता हूँ और न उसका अधिकारी हूँ। मैंने तो सिर्फ यहाँ पर उनकी मधुर सत्य वाणी दम्भ कदाग्रह रहित तथा आत्मश्लाघा से कितनी परे थी और कैसी निर्दोष, निष्पक्ष और युक्तिगम्य थी उसका साधारण पक्षपातो न मे वीरेन द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्ववचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥१॥ ___ तात्पर्य यह है कि मुझे किसी से पक्षपात और द्वेष नहीं है जिसका वचन युक्तिसंगत है वही मुझे मान्य है। यही कारण था कि भगवान् महावीर के उपदेश को जनता ने जयध्वनि से बधा लिया था। सामान्य प्रजा तो क्या परंतु राजगृही (मगध देश) के राजा श्रेणिक-बिंबिसार, कौशांबी (वत्सदेश) के राजा शतानिक, चंपा [अंगदेश] के राजा जितशत्रु, वीतभयपट्टन (सौवीर सिन्धु देश) के राजा उदायी, मृतिकावती (दशार्ण देश) के राजा दशार्णभद्र, और विशाला (विदेह देश) के राजा चेटक, काशी कोशल नव लिच्छवी तथा नव मल राजा आदि अनेक नरेन्द्र सम्राट उनके अनुयायी बने और कितने ही दीक्षाग्रहण कर निग्रंथ मुनि बने। उनका उपदेश समुद्र पारके युनान, मिश्र तक भी पहुँचा और वहाँ के विदेशी युवराज आर्द्रकुमार भी यहाँ आकर दीक्षा ग्रहण कर मुनि बने। पायथागोरस जैसे ग्रीक तत्त्व-वेत्ता ने भी पुनर्जन्म और पूर्वजन्म के सिद्धांत को प्रभु महावीर की शैली रूप ही स्वीकार किया। कहने का आशय यह है कि प्रभु महावीर की संस्कृति दिगन्तव्यापी बनी। कॉन्फरन्स को आप किस प्रकार से मदद कर सकते हैं? सभा स द बन कर पेटन 'अ' वर्ग - - रु. १००१ प्रदान कर पेट्रन 'ब' वर्ग - - रु. ५०१ आजीवन सभ्य 'अ' वर्ग रु. २५१ , , , 'ब' वर्ग रु. १०१ , कॉन्फरन्स द्वारा जैन साहित्य प्रचार जेसलमेर ज्ञानभंडार सूचि और धी जैन रिलीजीअन अन्ड लिटरेचर के लिए ज्ञान विभागमें (खातामें) उचित रकम भिजवा कर अथवा स्वयं प्रदान कर जैन युग ग्राहक बनकर वार्षिक उपहार रु.२ (प्रतिमास ता. १ को प्रकट किया जाता है)
SR No.536283
Book TitleJain Yug 1959
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1959
Total Pages524
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size34 MB
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