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________________ જૈન યુગ એપ્રિલ ૧૯૯૫ दर्शाया हुआ अहिंसावाद, कर्मवाद, तत्त्ववाद, स्याद्वाद, सृष्टिवाद, आत्मवाद, परमाणुवाद और विज्ञानवाद, इत्यादि प्रत्येक विषय इतना विशाल और गंभीर है जिसका यथार्थ वर्णन करना मेरे जैसे अल्पज्ञ व्यक्ति की शक्ति से बाहर है। वास्तव में ये सब विषय विश्व के लिये बहुत निधान रूप तथा कल्याणकारी सिद्ध हुए। इसके समर्थन में अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं तथापि यहाँ पर मात्र लोकमान्य तिलक यहाँ पर मात्र लोकमान्य तिलक आदि जैसे एक आध देशनेता और इतिहासज्ञ के प्रमाण देना उचित समझता हूँ। उन्होंने ओरिएंटल कॉन्फरंस में कहा था कि आज ब्राह्मणों की संस्कृति में जो अहिंसात्मक वृत्ति दृष्टिगत हो रही है वह सब जैन-धर्म के प्रभाव से ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि भगवान् महावीर ने इस अहिंसात्मक महान् उद्धार का झंडा न उठाया होता तो आर्य संस्कृति नष्ट हो जाती। आर्य संस्कृति के अन्तिम श्वास लेते समय संजीवनीदाता भगवान् महावीर ही थे। मानव संसार को मानवता का पाठ पढ़ानेवाले परमगुरु महावीर ही थे। बलिदान की जलती ज्वालाओं में नष्ट होते हुए उपकारी और उपयोगी पशुओं के प्राण-दाता महावीर ही थे। अनेक प्रकार के मत-भेदों से उत्पन्न होनेवाले विग्रहों का स्यावाद शैली से समाधान कर-सबको एक-सूत्र में संगठित करनेवाले सूत्रधार महावीर ही थे। पशुधन के हास से कृषिह्रास और उससे होनेवाले अन्नसंकट और रोगभय से रक्षण करनेवाले महाप्रभु महावीर ही थे। इस मायावी मृगजल की तृष्णा में तडपते हुए प्राणियों को आत्मज्ञान का अमृतपान करानेवाले महातत्त्वज्ञ महावीर ही थे। सृष्टि के निर्माता की कल्पना में पुरुषार्थहीन बनकर बैठनेवाली प्रजा को अपने पुरुषार्थ भरे कर्तव्य का भान करानेवाले मार्गदर्शक महावीर ही थे। अनेक प्रकार की विडम्बनाओं से निराधार बने हुए आत्माओं के लिये सच्चे आधार-स्तम्भ महावीर ही थे। उन गुण सागर का जितना भी वर्णन किया जाय उतना ही थोड़ा है, अर्थात् समुद्र में बिन्दु-तुल्य है। उन्होने सर्वसाधारण जनता को मानव संस्कृति विज्ञान के विकाश की पराकाष्ठा पर पहुँचने के लिये मुक्ति महातीर्थ का राजमार्ग (Royal road) सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और. सम्यक् चारित्र रूप अपूर्व साधन द्वारा पद्धति सर दर्शाया इसलिये वे तीर्थकर कहलाए । संसार में तीर्थकर पद सर्वोत्कृष्ट, सर्वोपरि और सर्वपूज्य । होने के कराण उस काल में भौतिकवादी-अजितकेश कम्बलि, नियतिवादी-मक्खलि गोशालक, अक्रियावादी-पूर्णकाश्यप, नित्यपदार्थवादी-प्रक्रुध कात्यायन, क्षणिक पदार्थवादीगौतमबुद्ध और संशयवादी-सञ्जय-वेलहिपुत्त आदि भिन्न-भिन्न धों के संस्थापक और संचालक अपने आप को तीर्थकर कहलाने में उत्सुकतापूर्वक प्रतिस्पर्धा की दौडधाम मचा रहे थे। अर्थात् उस समय मत प्रतिस्पर्धा ( Relicious rivalry) की होडा-होड मच रही थी जैसे कि आज सत्ता और श्लाघा के लिये मच रही है। परन्तु कहावत है कि पीला सो सोना नहीं। कहा भी है कि “साधवो न हि सर्वत्र चंदनं न वने वने" तात्पर्य यह है कि श्रुति, युक्ति और अनुभूति द्वारा सुज्ञ और विज्ञ जन के लिये सच-झूठ का निर्णय करना कोई कठिन विषय नहीं था। और वैसे तो प्रभु महावीर के परम पवित्र प्रवचन का आधार मनःकल्पना और अनुमान की भूमिका पर तो था ही नहीं, परन्तु उनके प्रवचन में लोकालोक के मूल तत्वभूत द्रव्य गुण-पर्याय के त्रिकालवर्ती भावों का दिग्दर्शन था। अथवा आधुनिक परिभाषा में कहा जाय तो उसमें विराट विश्व या अखिल ब्रह्माण्ड की विधिविहित घटनायें, उनके द्वारा होती हुई व्यवस्था, विधि का विधान और नियम का प्रतिपादन तथा प्रकाशन था। और महान् तत्त्वभूत पदार्थों के स्वभाव, विभाग की चित्र-विचित्र प्रक्रियामय चराचर विश्व की अखण्ड नियमबद्ध रचनात्मक वैज्ञानिक ढंग से विवेक कुशल व्यवस्था हो रही है उस नैसर्गिक महासत्ता-के महाशासन का मूलाधार रूप उत्पाद व्यय ध्रौव्य का तात्त्विक विवेचन था आधुनिक महान् विज्ञानवेत्ता (Great Scientists) मेलर, व्हाईट हेड और कोल्डींग आदि जितने प्रमाण में विश्व रचना सम्बंधी अधिकाधिक अध्ययन करते गये उतने प्रमाण में उनकी मान्यता भी इस विषय में दृढ़ होती गई। __जैन शास्त्रों में तो साफ उल्लेख है कि अनादि काल से तीर्थकर भगवंतों ने अखिल ब्रह्माण्ड और ज्ञान का बीज "उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य" इस त्रिपदी रूप ही प्रकाशित किया है और भगवान् महावीर जब सर्वज्ञ पदपर पहुँचे अर्थात् केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थकर बने तब उनके प्रधान शिष्य-गणधर ने प्रश्न किया कि 'भंते किं तत्तं किं तत्तं?' प्रत्युत्तर में उन्होंने भी " उपन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा" इस त्रिपदी द्वारा ही अपनी दिव्यध्वनि का मंगलाचरण किया। उन्होने अत्यंत सूक्ष्म दृष्टि से इस विश्व के
SR No.536283
Book TitleJain Yug 1959
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1959
Total Pages524
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size34 MB
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